Sunday 31 December 2017

कहानी ड्रैगन की


आसमां के पालने से गिरकर
धरती पर एक और तारा टूटा
जिससे एक बड़े लम्बे काले साँप का_
सिर फूटा
जो बैठा था चुपचाप,
अपने शिकार की तांक में
कि कोई तो पकड़ में आ जाए
इस फ़िराक़ में_

फूटे सिर के साथ,
साँप कुछ यूँ हो गया बेहोश
जैसे मधु पीकर सब हो जाते है मदहोश
इधर_
इतनी ऊँचाई से गिरने की गर्मी से
पिघल गया पूरा तारा
और घुल-मिल गया साँप के शरीर में
वो तो सारा का सारा
आसमां से टूटा आज एक अनोखा तारा

जब साँप ने झटका अपने सिर को
आने पर वापस होश
तो पता लगा उसे कि
निकल आये है उसके दो सींग
जब वो था बेहोश..!
और जानकर ये तारे के तो उड़ गए होश_!

पिघला तारा, कर रहा था हर कोशिश
साँप से अलग होने की
लगा रहा था वह, हर पेंच और दाँव_!
लेकिन_
उसके अलग होने की इस नाक़ाम कोशिश में
निकल आए साँप के हाथ और पाँव..!
देखकर यह_
बदल गए दोनों के हाव-भाव..!

अब_
दोबारा कोशिश की होने की अलग
तारे ने हड़बड़ाकर
तो निकल आए, साँप के दो पंख_
फड़फड़ाकर_!

देखकर यह सब_
साँप की ज़ोर से चीख़ निकल गई_ !
और उस चीख़ से निकली आग से_
सामने की सूखी घास जल गई...!
जिसमें छुपी बैठी थी_
एक मोटी-ताज़ी गिलहरी_
जो अब आग में जल-भुन कर
हो गई थी कुरकुरी..!

भुनी गिलहरी की ख़ुश्बू से
तारे का मन ललचाया
और उसने साँप को उसकी ओर भगाया
लेकिन_
साँप आग से डरकर दूसरी दिशा में दौड़ा
और दोनों की इस उहापोह में
धरती पर रेंगने वाला साँप
पहली बार आसमां को उड़ा..!!

ये सब क्या, क्यूँ और कैसे हो रहा था ??
ना साँप, ना ही तारे को समझ आ रहा था_.!
अलग होने की कोशिश में वह तारा_
साँप में और ज़्यादा घुल-मिल कर
उसके नए अंग उगाता जा रहा था..!!

अंततः_
दोनों घुल-मिल कर हो गए एकचित्र_
और बन गया नया जीव
जो था बड़ा विचित्र_ !!

लगा रहा था वह बादलों में गोते
फैलाकर अपने लम्बे पर_
और चिड़ा रहा था पक्षियों को
उनसे भी ऊँचा तैरकर..!!

उड़ते-उड़ते उसने देखा कि
चल रहा है एक जगह
छिपकली और मगरमच्छ के बीच कॉम्पिटिशन
कि कौन बन पाता है
एक बेहतर ड्रैगन
तभी_
भीड़ में से कोई चिल्लाया
करके इशारा उसकी ओर
कि देखो_
वो रहा सबसे बेहतरीन ड्रैगन
जो उड़ रहा है उस छोर_!

शाम का वो नन्हा लाल तारा
जब टूटकर गिरा आसमां से उस साँप  पर
तो बना दिया उसको ड्रैगन..!!
क्यूँकि दूसरों की wish पूरी करना
ही है तारों का इकलौता passion ..!!


                                                                                                     -iCosmicDust (निकिता पोरवाल )





Saturday 18 November 2017

तब से है तुमसे प्यार प्रिये...!



जब दूसरी कक्षा में पहली बार
तुम दाख़िला लेकर आई थी_
नेकर शर्ट पहने, बैठकर बगल की बेंच पर_
मुझ पर टेढ़ी नज़र गिराई थी_
तब से है तुमसे प्यार प्रिये...!
तब से है तुमसे प्यार प्रिये...!

हर रोज़ शाम को मोहल्ले की कंकरीली गलियों में
जब हम कंचे खेला करते थे
और मैं रोज़ जाता था हार प्रिये..!
तब से है तुमसे प्यार प्रिये...!
तब से है तुमसे प्यार प्रिये...!

जब हम फिरकी लट्टुओं की जंग लड़ाया करते थे
और उछालकर हाथ में लेना आ जाए
तो ख़ुशी से इतराया करते थे
उस फिरकी लट्टु की हाथों में गुदगुदी के अहसास के
जैसा था ये प्यार प्रिये..!
तब से है तुमसे प्यार प्रिये...!

जब प्रतियोगिता के नाम पर
हम कक्षा की पढ़ाई छोड़ देते थे
और आवारा से पूरे स्कूल में घूमा करते थे
तब मेरा ये सभ्य मन भी
हो गया था आवारा
तेरे प्यार में प्रिये..!
कि तब से है तुमसे प्यार प्रिये...!   

जब अमरुद की कच्ची शाखों पर
तुम बेखौफी से चढ़ जाती थी
और संतरों को बगीचों से चोरी कर
अपनी नेकर की जेबों को
पूरा उनसे भर लाती थी
तुम्हारी इस बेख़ौफ़ी को मैं बस
रहता था एकटक निहार प्रिये..!
कि तब से है तुमसे प्यार प्रिये...!

जब तीखी गर्मी की तपिश में भी
हम लंगड़ी पाला खेला करते थे
और मूसलाधार बारिश में सराबोर हो
साइकिल से रेस लगाया करते थे
तब मेरे मन की सुर्ख़ भूमि पर भी
आ गई थी प्रेम की बाढ़ प्रिये..!
असीमित हो गया था तुमसे
ये प्यार प्रिये..!

कड़ाके की सर्दी में जब हम
पतंग उड़ाया करते थे
और तुम अपनी अल्हड़ पतंग से
सूरज को छूने की कोशिश करती थी_
तुम थी वो मेरी अल्हड़ पतंग
किन्तु कोई था ना मांझा, ना डोरी, ना ही कोई तार प्रिये..!
था सिर्फ मेरा निश्छल प्यार प्रिये..!
कि तब से है तुमसे प्यार प्रिये...!

जब एक अनाथ शिशु का रुदन सुन
अनायास ही तुम उसकी माँ बन गई
और समाज की दुत्कार को सुन
चुपचाप ही कहीं दूर चली गई
तब ये कायर मन तुमसे कह भी न सका
कि करता हूँ मैं तुमसे प्यार प्रिये..!
कि करता हूँ मैं तुमसे प्यार प्रिये..!

अब_
जीवन की तपाग्नि में तपकर
उम्र की पगडण्डी पर चलकर
यह कहने को
आया हूँ आज तुम्हारे पास_
कि जब तुम इन नन्हें अनाथ बच्चों के संग
किलकारियों सी हँसती हो
तो उसकी ऊर्जा से
मेरे अंतर्मन का इकलौता सूरज_
देदीप्यमान हो जाता है
और उसकी मधुर ध्वनि से शरीर का
कण - कण गुंजायमान हो जाता है
इतना करता हूँ मैं तुमसे प्यार प्रिये..!
कि तुम्हारी चंचलता, निडरता, शौर्य और उत्साह
से है मुझे ये प्यार प्रिये..!
कि करता हूँ मैं तुमसे प्यार प्रिये..!
अधेड़ उम्र के इस अधीर मन का
यह प्रणीत अनुग्रह
अब कर भी लो स्वीकार प्रिये..!
कि कच्ची केरी सा खट्टा और पके आम सा मीठा
है ये तेरा प्यार प्रिये..!


         - iCosmicDust(निकिता पोरवाल)







Saturday 1 July 2017

४००० वर्ष वृद्ध एक वृक्ष से उसकी जीवन वार्ता (भाग-2)



अगले दिन सुबह ७ बजे...
शोधकर्ता वृक्ष के पास पहुँचती है...

शोधकर्ता (वृक्ष से):- सुप्रभात..!वृक्ष महोदय..!

वृक्ष जो कि प्रातः कालीन पक्षियों के कलरव को सुनने में मग्न था.. अचानक शोधकर्ता की आवाज़ सुन और इतनी सुबह उसे जंगल में देख हैरान हो जाता है। फिर शोधकर्ता से कहता है : सुप्रभात..! आप इतनी सुबह ही आ गई। रात भर ठीक से सोई भी है आप या नहीं?

शोधकर्ता:- जी आपकी इतनी रोमांचक कहानी सुनने को उत्सुक जो थी, ऐसा लगा की नींद मुझसे पहले ही जागकर आपके पास आपकी कहानी सुनने आ गई हो..!

वृक्ष:- हा हा हा..! चलिये अच्छी बात है। इस वन के सौंदर्य का भोंर के स्वर्णिम प्रकाश में आनंद उठाइये।
आइये..! (वृक्ष अपनी एक लम्बी, मजबूत, शाखा शोधकर्ता के आगे करता है।)
शोधकर्ता आश्चर्यचकित भाव से एक बार शाखा को और फिर वृक्ष को देखती है..!
वृक्ष:- घबराइये नहीं..! मैं आपको गिराऊँगा नहीं..!
शोधकर्ता:- उसका तो मुझे पूरा विश्वास है, बस आश्चर्यचकित हूँ..! किसी काल्पनिक जीवन को जीने जैसा लग रहा है यह सब..!

तत्पश्चात वह वृक्ष की उस शाखा पर खड़ी हो जाती है, वृक्ष उसे अपनी सर्वोत्कृष्ट शाखा पर बैठाता है और दोनों मिलकर सूर्योदय के पश्चात् का क्षितिज पार तक फैली वन सम्पदा का अत्यंत मनोहारी एवं नयनाभिराम दृश्य दृष्टित करने लगते है..!

कुछ समय पश्चात्...

वृक्ष:- कितना सीमित होकर रह गया है अब हम वृक्षों का जीवन..! हो सकता है कि अगले कुछ ही वर्षों में इस वन का एक भी वृक्ष जीवित न बचे। मनुष्य अपनी उपयोगिता लिये बिना विचार किये उनके टुकड़े - टुकड़े कर देगा। अपनी स्थिरता व स्थूलता के कारण हम तो निर्जीव समान ही है मनुष्य के लिए..! किन्तु वह तो हमारे साथ निवास कर रहे जीव-जंतुओं की भी चिंता नहीं करता। कालचक्र के इस घूर्णन के साथ-साथ मनुष्य इतना स्वार्थी बनता जा रहा है कि उसे स्वयं अपना पतन भी दिखाई नहीं दे रहा।
एक समय यही मनुष्य इस प्रकृति के साथ, हम वृक्षों के साथ, जीव-जंतुओं के साथ सामंजस्य बनाकर रहता था।

शोधकर्ता:- मनुष्य कब से प्रकृति के साथ सामंजस्य से रहने लगा ?  जितना इतिहास में मैंने झांककर देखा है, वह तो सदैव प्रकृति का शोषण ही करता आया है..!

वृक्ष:- जब मेरा वह वन जहाँ मैं अपनी माँ के साथ जीवन व्यतीत कर रहा था, वहाँ ज्वालामुखी फटने से हुई त्रासदी के बाद भूमि में कुछ इस प्रकार परिवर्तन आए कि वह पहले की अपेक्षा और अधिक समतल हो गई।  ज्यादा वृक्ष तो उस पर दोबारा से पल्ल्वित नहीं हो पाए किन्तु उस भूमि पर एक विशेष प्रकार के जीवों का एक छोटा सा समूह आकर बस गया जो कि दुसरे जीवों की चर्म या हम वृक्षों की छालों व पत्तों को जोड़कर उन्हें ओढ़ता था एवं उसकी कल्पना शक्ति अद्भुत थी।
वह समूह उस समतल हुई भूमि की ऊपरी मृदा को थोड़ा ढीला करता, फिर कुछ विशेष प्रकार के पौधों के बीज उसमे डालता, पानी से सींचता और एक समय पश्चात् जब उन पौधों पर कुछ फल लग जाते तो उन्हें काटकर एक सीमित ऊर्जा की अग्नि में पकाकर अपना भोजन करता। साथ में वह अन्य जीव-जंतुओं का शिकार भी करता, किन्तु सिर्फ उसकी आवश्यकता के अनुसार ही।
इसके साथ ही उसकी भाषा भी वन के अन्य प्राणियों की अपेक्षा कुछ भिन्न थी। सम्पूर्ण समूह में केवल चार या पांच लोग ही ऐसे थे जो कि वन के अन्य प्राणियों यहाँ तक कि कुछ सीमा तक हम वृक्षों से भी बात करने में समर्थ थे।

शोधकर्ता:- अच्छा..?!

वृक्ष:- जी हाँ..!और उन्हीं के कारण हमें यह ज्ञात हुआ था कि वे हमारा वृक्षों का, अन्य जीवों का, इस प्रकृति का सम्मान करते थे।
काष्ठ की आवश्यकता उन्हें उस समय भी रहती थी, किन्तु उसके लिए वे हम वृक्षों की शाखाओं को काटते.. मुख्य तना नहीं..! और उसके लिए इस प्रकृति को, हम वृक्षों को धन्यवाद देते व हमारा आदर-सम्मान करते। यही नियम अन्य जीव-जंतुओं के लिए भी लागू होता।  केवल आवश्यकता अनुसार ही शिकार किया जाता व उसके लिए इस प्रकृति का आभार प्रकट किया जाता।

शोधकर्ता:- अरे हाँ..! इस प्रकार के कुछ आदिवासी कबीलों के बारे में पढ़ा है मैंने।

वृक्ष:- जी..! ऐसे ही एक कबीले ने हमारे वन में आश्रय लिया था, जो कि बहुत फला-फूला। इतना कि उस कबीले की छोटी सी बस्ती ने धीरे-धीरे गांव और फिर एक विस्तृत क्षेत्र में फैले समृद्ध राज्य का रूप ले लिया।

शोधकर्ता:- और इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में आपका जंगल बचा या वह मानव के इस सांस्कृतिक विकास की भेंट चढ़ गया ?

वृक्ष:- अधिकांशतः तो बच गया, किन्तु फिर भी वन का काफ़ी भाग इस विकास की भेंट चढ़ा।
एक दृष्टिकोण से देखा जाए तो शायद यहीं-कहीं  से हमारे अस्तित्व का हरण प्रारम्भ हो गया था। क्यूँकि इसके पश्चात प्राकृतिक संसाधनों का दोहन लगातार बढ़ता ही गया; कभी कम नहीं हुआ।

शोधकर्ता:- आपने स्वयं इसका सामना कैसे किया ? कैसे आपका अस्तित्व बच गया इस विकास की बलि चढ़ने से..?

वृक्ष:- वैसे इसके लिये तो मैं आप मनुष्यों का ही धन्यवाद देना चाहूँगा, क्यूंकि मैं तो अचल वृक्ष था उस समय कि अपने बचाव के लिए कुछ कर सकूँ।

शोधकर्ता:- वो कैसे ?

वृक्ष:- जब मनुष्यों का वह समूह वहाँ बसने के लिए आया था।  उस समय उनके समूह के वे लोग जो हमसे बात कर सकते थे, उन्होंने वन के कुछ वृक्षों को किसी भी प्रकार की हानि न पहुंचाने की हिदायत दे दी थी और भाग्यवश मैं भी उन वृक्षों में से एक था। जिन्हें उन्होंने सर्वाधिक आदर-सम्मान दिया था।

शोधकर्ता:- तात्पर्य यह है कि आप उन आदरणीय वृक्षों में से एक बन गए थे उनके लिए..!

वृक्ष:- जी हाँ...! बिल्कुल सही अंदाजा लगाया आपने।

शोधकर्ता:- अर्थात यदि आज आप अपने मूल स्थान से हिले नहीं होते तो किसी शहर के बीच में अपने इस विशालकाय स्वरुप के साथ खड़े होते।

वृक्ष:- अरे नहीं..! मनुष्यों की जिस सभ्यता का स्वर्णिम विकास मेरे चारों ओर हुआ था, उसका पतन भी समयांतर के साथ मेरे नेत्रों के समक्ष ही हुआ।
और उसके बाकी बचे अवशेष भी शनैः-शनैः प्रकृति में विलोपित हो गए।

शोधकर्ता:- ओह..! लेकिन कैसे ?? इतनी विकसित सभ्यता का पतन अचानक किस प्रकार हुआ ?

 वृक्ष:- एक प्राकृतिक आपदा से। मनुष्यों ने अपने ऐश्वर्य और सांस्कृतिक विकास के लिए प्रकृति और वृक्षों का जो दोहन किया, उससे वहाँ की भूमि की पकड़ ढीली हो गई। सक्रिय ज्वालामुखी निकट होने के कारण वहाँ वैसे भी भूकंप आते रहते थे।
ऐसे ही एक दिन इतनी अधिक तीव्रता का भूकंप आया कि सम्पूर्ण साम्राज्य कुछ ही क्षणों में भूमि में विलीन हो गया। सिर्फ कुछ अवशेष ही उसकी उपस्थिति के प्रमाण के लिए बाकी रह गए। बहुत ही विनाशकारी दिवस था वो, जब उन क्षणों के लिये मुझ जैसा विशालकाय वृक्ष भी अस्थिर हो गया था।

शोधकर्ता:- ओह..! तो क्या उस समय से ही आपने वह स्थान त्याग करने का निश्चय किया ? और स्थिर से गतिमान होने की ओर प्रयास प्रारम्भ किये ?

वृक्ष:- हा हा हा..! अरे नहीं..! वह स्थान मेरी मातृभूमि थी, सिर्फ एक भूकंप के झटके से मैं उस स्थान को त्यागने का निर्णय कैसे कर सकता था ?
उसके पश्चात् तो प्रकृति पुनः फली-फूली और उस वन सम्पदा को और भी अधिक सौंदर्य से सम्पूरित कर दिया।

शोधकर्ता:- तो फिर आपके मन में ये स्थिरता से गतिमान होने का विचार कैसे, कब और क्यूँ आया ?

वृक्ष:- जैसा कि मैंने आपको आरम्भ में बताया था, मेरे अंदर जीवन ऊर्जा और उत्साह अन्य वृक्षों की तुलना में कहीं अधिक था और उसी के परिणामस्वरूप मैं इस विशाल काया और लम्बी आयु को प्राप्त कर सका, किन्तु "अति सर्वत्र वर्जयेत" ये कथन तो आपने सुना ही होगा।

शोधकर्ता:- जी हाँ..!!

वृक्ष:- बस इसी जीवन ऊर्जा से मिली लम्बी आयु के कारण मैं उस समय भी जीवित रहा जब मेरा संपूर्ण वन नष्ट हो एक वीरान बंजर में परिवर्तित होने लग गया। मेरी जड़ें भूमि में अधिक गहराई तक धँसी होने के कारण मुझे कभी पोषण की कमी नहीं हुई अपितु बेहतर पोषण के लिए वे और अधिक गहराई में जाती चली गई।
अंततः उस वीरान बंजर भूमि में मैं अकेला वृक्ष बाकी रह गया।  यहाँ तक कि धीरे-धीरे मेरे ऊपर निवास कर रहे प्राणियों के निकुंज भी वीरान हो गए।
बस यही क्षण था जब मैंने भी प्रथम बार अपने जीवन से मुक्ति की बात सोची थी।

शोधकर्ता:- ओह..!!

वृक्ष:- जी हाँ..! मेरे हृदय में स्थिरता से गतिमान का विचार सिर्फ इस हेय से आया था कि मैं अपने जीवन की इति कर सकूँ।
और आप विश्वास नहीं करेगी उसके पश्चात एक लम्बे समय तक मैंने इसी के लिए कोशिश की।

शोधकर्ता:- मुझे ज्ञात ही नहीं था कि एक वृक्ष भी निराशावादी हो सकता है।
तो फिर आपकी इस निराशा को पुनः आशा के पंख किस प्रकार मिले ? मेरा तात्पर्य है कि आपने कब इस निराशावादी विचार को अपने हृदय से निकाल स्वयं को पुनः जीवन ऊर्जा से भर लिया ??

वृक्ष:- अपने जीवन की इति करने के लिए मैं शनैः-शनैः अपनी जड़ों को भूमि की गहराइयों से ऊपर लाने की कोशिश करने लगा। एक लम्बी समयावधि व्यतीत होने के पश्चात् मुझे ज्ञात हुआ कि मैं तो उस स्थान पर हूँ ही नहीं जहाँ मैं हुआ करता था। मैं स्वयं की इति श्री में ही इतना तल्लीन था कि मैंने गौर ही नहीं किया कि कब मैं उस बंजर भूमि से निकलकर एक नवीन वन में आ पंहुचा था। मैं उस जंगल के किनारे पर खड़ा था जिसके पास मनुष्यों का एक विशाल शहर बसता था और जब अपने आस-पास के साथी वृक्षों से बात की तब पता लगा कि वे सभी वृक्ष मुझे यात्री वृक्ष के नाम से पुकारते थे, जो कि एक लम्बे समय से यात्रा कर रहा है।

शोधकर्ता:- एक यात्री वृक्ष..! बहुत ही अद्भुत नाम है।

वृक्ष:- जी हाँ..! और बस इस नामकरण के पश्चात् ही मैं कभी रुका नहीं। जीवन जीने का एक नया ध्येय मिल चूका था मुझे अब। और सदैव अपनी काया को और अधिक चलायमान करने की कोशिश करता रहा। प्रकृति की भाषा तो ज्ञात थी ही, किन्तु इसके साथ ही मनुष्यों की भाषाएँ भी सीखी। उनकी कितनी ही संस्कृतियों के उत्थान और पतन देखे। और प्रतिदिन कुछ नवीन सीखता रहा और अपने जीवन को रोमाँचों से परिपूर्ण करता रहा

शोधकर्ता:- ये मेरा सौभाग्य है कि मुझे आपसे मिलने एवं बात-चित करने का अवसर प्राप्त हुआ। वास्तविक रूप में देखा जाए तो आप अपने अंदर एक सम्पूर्ण इतिहास को संजोए हुए है। कोशिश यही करूंगी कि आपसे मुलाकातों का ये सिलसिला जारी रहे और मैं जीवन और इतिहास से सम्बंधित कई उपयोगी बातें आपसे जान पाऊँ।

वृक्ष:- जी बिलकुल..! तब तक के लिए शुभ रात्रि..!

शोधकर्ता:- जी धन्यवाद..! शुभ रात्रि..!!








  

Tuesday 20 June 2017

"बंधन" एक आदत



क्षितिज पार होता सूर्यास्त, गुलाबी-नारंगी से लेकर हल्के जामुनी रंग में विस्तृत आकाश, और उस आकाश में विभिन्न प्रकार की आकृतियाँ बनाते घर लौट रहे पक्षियों के समूह. . ! एक नयनाभिराम दृश्य ..! और इसी अदभुत दृश्य के मध्य विशालकाय, पर्वतरुपी चट्टान से टकराती उन्मुक्त समुद्र की ये लहरें..! ऐसा प्रतीत होता है मानो इस विशालकाय चट्टान ने समुद्र की इस उन्मुक्तता को बाँध दिया हो और उसकी लहरें बार-बार चट्टान से टकराकर उसे वहाँ से हट जाने के लिये कह रही हो। ताकि वो उस बंधन से स्वतंत्र हो पूरी तरह उन्मुक्त हो सके।

बंधन भला किसे पसंद होता है? चाहे वो समुद्र हो, उसके अंदर निवास करने वाले विभिन्न जलचर हो या भूमि के रहवासी थलचर हो या फिर मुझ जैसे.. आकाश में तैरने वाले नभचर...! लेकिन उसे था..! जी हाँ..! उसे बंधन प्रिय था..! वैसे मेरे परिप्रेक्ष्य से देखा जाए तो उसे बंधन नहीं अपितु  उस बंधन में मिले ऐशो-आराम से प्रेम था; इतना कि यदि आप उसे मुक्त भी करवा लें, तो भी वह अपने बंधन को नहीं छोड़ती। कौन थी वह? आगे की कहानी में आप स्वयं ही जान जाएँगे...।

यह बात उस समय की है जब मैं इस क्षेत्र के पक्षियों का सम्राट चुना गया था। हालाँकि मेरा शासनकाल प्रारम्भ हुए बहुत अधिक समय नहीं हुआ था, किन्तु राज्य का सञ्चालन पुनः सुचारु रूप से चालू हो गया था और सभी पक्षी मिल-जुल कर शांतिपूर्ण रूप से रहने लगे थे। इसी प्रकार की एक शाम को अपने राज्य की व्यवस्थाओं का अवलोकन कर मैं निश्चिन्त हो बैठा ही था कि मुझे सुचना मिलती है कि कुछ मनुष्य जंगल में जाल बिछाकर कई पक्षियों को कैदी बनाकर ले गए। बस फिर क्या था..! एक सम्राट होने का कर्त्तव्य निभाते हुए मैं उन पक्षियों को ढूंढकर छुड़ाने के लिए निकला। महान बनने की लालसा और यौवन से पूर्ण होने के कारण मैं यह कार्य स्वयं करना चाहता था।

पक्षियों की पूरी जानकारी मिलने पर यह ज्ञात हुआ कि मनुष्यों के एक बड़े शहर के चिड़ियाघर में पक्षियों की संख्या अपेक्षाकृत रूप से कम रह गई थी, जिससे उनके दर्शक कम हो गए थे। अतएव अर्थ की लालसा में तथा दर्शकों की संख्या बढ़ाने के लिये उन्होंने वन में जाल बिछाकर पक्षियों के एक बड़े समुदाय को कैदी बना लिया और उस चिड़ियाघर के पिंजरों में लाकर छोड़ दिया।

बड़ी सूझ-बूझ, साहस, छुपते-छुपाते और अन्य प्राणियों की मदद से मैं उन सभी पक्षियों को उस उम्रकैद से छुड़ाने में सफल रहा, किन्तु.. स्वयं को नहीं। जी हाँ..!मनुष्यों को हमारी गतिविधि की सूचना मिल गई और उन्होंने मुझे कैदी बना लिया, तत्पश्चात एक विशालकाय पिंजड़े में ले जाकर मुझे छोड़ दिया। किन्तु मैंने अभी हार नहीं मानी थी, अतएव मैं अर्द्धरात्रि की प्रतीक्षा करने लगा, द्वार से कुछ ही दूरी पर बैठकर ..।

जब अर्द्धरात्रि में संपूर्ण चिड़ियाघर में निष्क्रियता ने पाँव पसार लिये, तब मैं पुनः स्वयं को उस कैद से मुक्त करने की कोशिश करने लगा।

कुछ ही क्षण बीते होंगे कि पीछे से आवाज़ आई- "ये क्या मूर्खतापूर्ण कार्य करने जा रहे हो? यदि कुछ समय यहाँ व्यतीत कर लोगे तो स्वतः ही बाहर की दुनिया भूल जाओगे। किन्तु यदि फिर भी तुम्हें यह मूर्खता करनी ही है तो कल सुबह करना, अभी मेरी निद्रा में व्यवधान उत्पन्न हो रहा है। शांति से सोने दो मुझे और तुम भी सो जाओ। "

चारों तरफ इतना गहन अन्धकार था कि वो कौन थी, कहाँ से बोल रही थी, कुछ नहीं दिखा। किन्तु उसकी वाणी बड़ी मृदुल थी और मैं तो उसी पर मोहित हो गया था। अतः उसकी बात बिना टाले चुपचाप सो गया।

अगले दिन सुबह भी उसकी आवाज़ ने ही मुझे जगाया, यहाँ तक कि जब नेत्र खोले तो उनके समक्ष वही खड़ी थी। उसके पीछे से आता भोंर के सूर्य का स्वर्णिम प्रकाश उसके सौंदर्य को और भी निखार रहा था एवं एक दिव्यता का अनुभव करवा रहा था। बहुत ही अप्रतिम भोंर थी वह.. जो कि एक दिवास्वप्न की भाँति प्रतीत हो रही थी और मुझे उसके प्रेम में सम्पूरित कर  रही थी। तभी... उसने मुझे एक जोर का थप्पड़ मारा और दिवास्वप्न के आकाश से यथार्थ के धरातल पर ला खड़ा किया। तब मुझे ज्ञात हुआ कि वह काफी समय से इस पिंजरे में रहने के लिये बनाए गए उसके नियम मुझे बता रही थी। जैसे कि किस प्रकार यह पिंजरा कितने क्षेत्रों में बंटा हुआ है और कौन-कौन से क्षेत्र में मेरे लिये जाना वर्जित है। जैसे कि जब भी भोजन परोसा जाएगा तो पहले वह भोजन करेगी एवं शेष में से मुझे ग्रहण करना होगा.. आदि.. आदि..!

उसे यह भ्रान्ति हो गई थी कि मैं वाकई में वहाँ रुकने का निर्णय ले चुका था। वैसे उसके प्रेम के लिये रुक भी जाता किन्तु मैंने पुनः स्वतंत्र होने की ठानी और साथ में उसे भी स्वतंत्र कराने की। हालाँकि ये सबसे दुष्कर कार्य था,स्वयं की स्वतंत्रता से भी कहीं अधिक दुष्कर!।

कड़ी मेहनत कर रहे किसी व्यक्ति की सहायता कर उसे उसके लक्ष्य तक पहुँचाना आसान है, किन्तु यदि वह व्यक्ति आलस्य का शिकार हो, आमोद-प्रमोद में जीवन व्यतीत करने का आदी हो गया हो,तो उसकी सहायता कोई नहीं कर सकता। उस व्यक्ति को कोई फर्क नहीं पड़ता यदि उसके इस आमोद-प्रमोद का मूल्य उसकी स्वतंत्रता ही क्यूँ न हो_।


और कुछ इस प्रकार की ही मानसिकता बन चुकी थी उसकी भी। जब मैंने उससे पूछा- "तुम स्वतंत्र क्यूँ नहीं होना चाहती?" तो उसने उत्तर दिया- "स्वतंत्र ही तो हूँ मैं..! अपने इस पिंजरे के अंदर..! किसी प्रकार की समस्या नहीं..!समय से भोजन मिलता है..! इतना विशाल पिंजरा है कि एक सीमित ऊँचाई तक अबाध्य रूप से उड़ सकती हूँ...!किसी भी प्रकार के प्राणघातक खतरों का भय नहीं..! और समय- समय पर मेरे स्वास्थ्य की भी जाँच-पड़ताल होती रहती है..! और क्या चाहिये जीवन जीने के लिये??
अपने प्रश्न का यह उत्तर सुन हैरान था मैं..!! आप कल्पना भी नहीं कर सकते कि कितनी कोशिशें की होंगी मैंने उसको स्वतंत्र जीवन के स्वर्णिम सूत्र समझाने के लिए..!! प्रारम्भ में तो उसका उत्तर भी यही मिला था- "बाहर तो मुझे एक समय का भोजन भी तृप्ति भर प्राप्त नहीं हो पाता था, कभी-कभी तो सम्पूर्ण दिवस बस आकाश में गोल-गोल चक्कर लगाकर भोजन की तलाश में ही निकल जाता था, किन्तु उसके उपरान्त भी भोजन प्राप्त नहीं होता था।  उसकी अपेक्षा यहाँ मुझे समय पर भोजन तो मिलता है। तो क्यूँ जाऊँ मैं बाहर ?"

उसकी इस विचारधारा को परिवर्तित करने में मुझे १० दिवस का समय लग गया। और जब मैंने उसे बताया कि मैं एक सम्राट हूँ, मेरी प्रजा को मेरी आवश्यकता है, कि मेरा स्वतंत्र होना कितना अधिक आवश्यक है.., तो वह  इस प्रकार अचंभित हो ज़ोर से अट्टहास करने लगी जैसे मैंने कोई हास्यप्रद बात कह दी हो..!किन्तु... जब उसने मेरी स्वतंत्र होने की निष्ठा को देखा, तो स्वतः ही इस कार्य में मेरी सहायता करने लगी।

एक पखवाड़े की उम्रकैद के पश्चात् मुझे स्वतंत्र होने में सफलता प्राप्त हुई और साथ में वह भी..!! हाँ..! इतना समय साथ व्यतीत करने के पश्चात् उसने भी मेरे साथ आने का निर्णय कर लिया था और मेरे लिये उस स्वत्नत्रता की प्रसन्नता में १०० गुना अधिक वृद्धि हो गई थी।

वो मेरे साथ आ तो गई थी, किन्तु उसकी आलस्यपूर्ण, आमोद-प्रमोद वाली जीवन-शैली भी साथ में आई थी। यद्यपि मुझे उससे कोई आपत्ति नहीं हुई, अपितु मेरा जीवन और अधिक रोमांच से भर गया। वह मनुष्यों के मध्य एक लम्बी अवधि तक रहने के कारण उनकी कई प्रकार की आलस्यपूर्ण तकनीकें भी सीख गई थी, जिनसे मुझे ही अपने साम्राज्य को बेहतर बनाने में सहायता मिली।

हाँ..!! जानता था मैं एक ऐसी गरुड़ी को, जिसे बंधन प्रिय था, और अब उसका इकलौता बंधन मैं हूँ और वह मेरे इस साम्राज्य की साम्राज्ञी है, जो कि इस समय मेरे पार्श्व में बैठी इस नयनाभिराम दृश्य को दृष्टित कर आनंदविभोर हो रही है।


"आह..!"
"क्षमा पिताजी..! देखो.. आज मैं कितनी बड़ी मछली पकड़ कर लाया..!!"
"नहीं..! मेरी ज्यादा बड़ी है..!"


ये बच्चे भी न..! इनकी चंचलता स्मृतियों के समुद्र से हमें एक क्षण में ही इस प्रकार बाहर खींच लाती है जैसे ये मीन पकड़कर लाए है..!


विहंग साम्राज्य के सम्राट गरुड़ की ओर से आप सभी को शुभ रात्रि..!




 


Tuesday 16 May 2017

पेड़ की पाठशाला



मैं हूँ एक पेड़ 
जो पढ़ता हूँ किताबें 
मैं हूँ एक पेड़ 
जो लिखता हूँ किताबें 

बरसों पहले_
जब मेरे नीचे 
लगती थी जो पाठशाला 
जिसमें मास्टरजी बच्चों को 
ज्ञान के पाठ पढ़ाते थे 
तब उन नन्हें बच्चों के संग 
मैं पढ़ना - लिखना सीख़ गया_
मैं तारे गिनना सीख़ गया_

जब शाम को चार बूढ़े मिल 
परिवार की बातें करते थे_
जब शाम को चार बूढ़े मिल
रिश्तों की बातें करते थे_
तब_
अपने दामन में बसे निकुंजों का 
मैं ख़्याल रखना सीख़ गया_

जब काली तन्हा रातों में_
वो तन्हा गवैया गाता था 
जब काली तन्हा रातों को वह 
सुरों के रंगों में संजोता था 
तब उसके गीतों में रंग_
मैं गुनगुनाना सीख़ गया_

जब सुबह - शाम वैद्यराज 
रोगियों का उपचार करते थे 
तब सुबह - शाम वैद्यराज
स्वास्थ्य की शिक्षा देते थे 
तब उनके नुस्खों को सुन_
मैं स्वस्थ रहना सीख़ गया _

जब सुकुमार बालाओं के पद 
संगीत की ताल पर थिरकते थे 
जब बच्चे से लेकर बूढ़े तक 
मग्न हो नर्तन करते थे_
तब उनके नृत्यों में होकर गुम 
मैं झूमकर लहराना सीख़ गया_

जब एक सन्यासी कई दिन 
धूनी रमाए बैठा था_
जब एक सन्यासी कई दिन 
तप में लीन बैठा था_
तब उसके धैर्य और संयम को देख 
मैं भी संयम सीख़ गया 

मैं हूँ एक पेड़ 
जो पढ़ता हूँ किताबें 
और उन किताबों से मैं 
जीवन जीना सीख़ गया 
और अपने जीवन के सभी अनुभवों को 
अपनी किताब में लिख गया 

- iCosmicDust(निकिता पोरवाल )



Friday 12 May 2017

Wednesday 8 March 2017

The Enchantress Night


On this Woman's Day I am presenting you the painting of "The Enchantress Night"..!
This painting is my tribute to the night..! I am always a night lover, I love to stay awake at night without any reason, I love to wander at night, the best memory of my childhood was the summer nights when we used to sleep at the roof and I got a chance to stare at the stars for as much as I wanted to..! The night which is silent and mysterious and contains a lot of secrets in her dark hood but along with these she also contains beauty. Some special and most beautiful flowers only blooms at night, some birds sing their most beautiful songs only at night and also some most wonderful creatures wander only at night..!
So in this painting I personified the character of Night and when I was searching for the characteristics of Night I found out about Greek Goddess Nyx who stood near the beginning of creation and mothered other personified deities such as Hypnos(Sleep), Thanatos (Death) and Erabus (Darkness).


Disclaimer: The animal I tried to paint in this painting is a Wolf..😝😝😝 so please cooperate if you saw him as a fox or dog or any likewise animal 😂😂





Thursday 16 February 2017

Wedding Invitation

This Wedding Invitation Video I made for one of my best friend cum big sister Monalisa Rajora on her wedding. Hope you will like it :)

Saturday 21 January 2017

रंगीले गिरगिट का प्यार


काले मटमैले बादलों के बीच
जब एक शाम को_
चमकीली चाँद आसमाँ की सैर पर निकली
तब उसकी खूबसूरती को देखकर
रंगीले गिरगिट की नज़र फिसली_
तभी उसकी लंबी सी जीभ में फंस गया
उसके इकलौते गिटार का तार
अरे रंगीले गिरगिट को तो हो गया_
चमकीली चाँद से प्यार

तार और जीभ की उलझन को_
अरे तार और जीभ की उलझन को सुलझाने में
टूट गयी उसके गिटार की वो तार
और हो गई उसकी जीभ तार तार
अब कैसे करेगा?
रंगीला चमकीली से अपने प्यार का इज़हार..!
अब तो रंगीली भी जा चुकी थी आसमाँ से यार
बादलों के भी उस पार_
अरे रंगीले गिरगिट को तो हो गया
चमकीली चाँद से प्यार

अगली शाम को चाँद को करने को impress
गिरगिट ने बनाया एक नया भेस
पहने नये जूते और लगाई सिर पर Hat
 लेके inspiration from Puss the Cat
और उसके जूते भी थे कुछ  ऐसे रंगीले
जो बदल सकते थे रंग उसकी तरह_
लाल, हरे, पीले, नीले
साथ में लगाई कमर  में एक Gun Toy
जैसे दिखता हो वो Cowboy
करने लगा सज-धज के इंतज़ार वो बेसब्री से
किंतु आज़ चाँद सैर पर निकली कुछ देरी से
देखकर चमकीली को वह बोला खुद से
आज़ करूँगा मैं चमकीली से अपने प्यार का इज़हार
फ़िर मेरे जीवन में भी आ जाएगी बहार
अरे मुझको तो हो गया है
चमकीली चाँद से प्यार

दो कदम चलने पर ही
उन जूतों ने रंगीले गिरगिट को काटा
जिनकी making कंपनी थी काँटा 
दर्द की कराह में रंगीला चिल्लाया
इन जूतों को कोई निकालो_ ओ भाया
तब चंचल चकोर दौड़कर आया
निकाले उसके जूते और मरहम लगाया

चमकीली चाँद यह सब देख रही थी_ होकर बैचेन
तभी चंचल चकोर से लड़ गए उसके नैन
निहारते रहे एकटक दूसरे को
वे तो सारी-सारी रैन

देखकर यह सब रंगीला गिरगिट गुर्राया
इतना सज-धज के भी हाथ उसके कुछ ना आया
अब कैसे चुकाएगा वो शॉपिंग बिल का बकाया?
यह सोच-सोच कर वह पछताया

बजाता है अब वह अपनी जीभ के तारों से गिटार
जिससे चल रही है उसकी रोज़ी-रोटी 
और चूक रहा है उधार
अरे रंगीले गिरगिट को तो हो गया है प्यार..!

                                                                                          -निकिता पोरवाल (iCosmicDust)




Friday 13 January 2017

सूरज डूबा समंदर में (Fun Fantasy Song)


सूरज डूबा समंदर में 
खाने को मछलियाँ 
छोटी-बड़ी, रंग-बिरंगी,
खूबसूरत सी मछलियाँ 

उसे लगती थी स्वादिष्ट 
जिस समुद्र की ये मछलियाँ 
उसी समुद्र से छुप-छुप के 
खाता था वह मछलियाँ 

एक दिन_
 एक दिन उसने एक मछली खा ली 
जो कि थी एक शार्क की घरवाली 
देखा यह जब  शार्क ने 
तो वह गुस्से से उबला 
और उसने शपथ ली 
कि लेके रहेगा बदला 

मछलियाँ खाने जब सूरज 
अगली रोज़ रात को आया 
तो शार्क ने एक ख़ूबसूरत सी 
गोल-मटोल मछली का जाल बिछाया 
मछली को देख सूरज ललचाया 
देखा जिसे समुद्र ने 
और उसको कैदी  बनाया 

दो दिन तक जब सूरज वापस नही आया 
तो बादलों ने उसका पता लगवाया 
कि किसने सूरज को  किडनैप करवाया
तब उन्हें चाँद ने बताई ये बात 
कि समुद्र ने बनाया सूरज को कैदी 
और मारी मारी दो लात 
क्यूंकि वह तो डूबा था समंदर में 
खाने को मछलियाँ 
छोटी-मोटी, रंग-बिरंगी 
खूबसूरत सी मछलियाँ 

पाकर पता सूरज का 
ज़ोर-ज़ोर से गरज़े और बरसे बादल 
और गिराई समंदर पर बिजलियाँ 
कि सूरज को क्यूँ तुमने किडनैप किया?
वह तो है इस दुनिया का इकलौता दीया 
बोला समुद्र 
सूरज ने खाई मेरी मछलियाँ 
बुझा दूंगा मैं तुम्हारा 
वह रौशनी का दीया 
फिर कोई हिम्मत नहीं करेगा 
खाने की मेरी मछलियाँ 
सीधी-सादी, खूबसूरत सी 
प्यारी-प्यारी मछलियाँ 

बोले बादल हो गई है गलती उससे 
दे दो उसको माफ़ी 
रोज़ रात को बना लेना कैदी 
क्या इतना नहीं है काफी?

बादलों की विनती पर 
समंदर का मन पिघला 
और तीसरे दिन सूरज 
फिर से निकला 
बदहज़मी कर गई उसको खाना मछलियाँ 
समुद्र का कैदी है वह इकलौता दीया 
जहाँ उसे ठंडी बर्फ चलाती है गुदगुदियाँ 
अब भूल चूका है वह खाना मछलियाँ 
जान से ज्यादा ख़तरनाक़ साबित हो गई 
उसको वह ख़ूबसूरत सी स्वादिष्ट मछलियाँ _ _!

                                                 -निकिता पोरवाल (iCosmicDust)





Thursday 12 January 2017

Moon on Holiday (Fun Fantasy song)

अपनी Daily की Duty से ऊबकर
आज़ चाँद निकला है Holiday पर
अपने सारे कपड़े_ अपने 16 जोड़ी कपड़े Pack कर
आज़ चाँद निकला है Holiday पर

वह ये नौकरी करता था
क्योंकि वो पृथ्वी पर मरता था
लेकिन_इतने सारे चक्कर खाकर
भी चला ना जब कोई चक्कर
तो वह चूर-चूर हो गया थककर
अब आने लगे उसे चक्कर पे चक्कर
तब चाँद निकला है Holiday पर

उसने सोचा नौकरी छोड़ Universe Tour पर जाऊँगा
और पृथ्वी से ज्यादा सुन्दर ग्रहों से अपना चक्कर चलाऊंगा
दिखाऊंगा अपने अलग-अलग रूप और लड़ाउंगा उनसे नैन
जिससे वो सब हो जाएंगी मेरी Fan
फिर वो सब मिलकर लगाएंगी मेरे चक्कर
आज़ चाँद निकल चुका है Holiday पर

घुमा उसने पूरा ब्रह्माण्ड बनकर रंगीला
कई तारों, ग्रहों,मंदाकिनियों व उल्काओं से भी मिला
बाल-बाल बचा जब निगलने वाला था Black Hole
लेकिन उसकी Body में हो गए छोटे-छोटे Hole
वो चूर-चूर हो गया थककर
और  खाने लगा चक्कर के अंदर चक्कर
चाँद जो निकला था Holiday पर

आगे चलकर उसको मिले चार Pirate Comet
जिन्होंने उसे नचाया जैसे कि हो Puppet
फ़िर खेला उसको निशाना बनाकर तीरंदाज़ी का ख़ेल
और डाल दी उसकी नाक में नकेल
लूट लिया उसको पूरा बेहाल कर
जैसे निकला हो वह Holiday नहीं बल्कि संन्यास पर
चाँद जो निकला था Holiday पर
आ गया याद उसको अब अपना घर

अब उसे पता चला कि वो था कितना Fool
नहीं है इस Universe में पृथ्वी जैसी Beautiful
आ गया लौटकर पसीने से तरबतर
चाँद जो निकला था Holiday पर

अपनी पुरानी Duty फिर से Join कर
रिझाने लगा पृथ्वी को वो घनचक्कर
और दोबारा लगाने लगा चक्कर पे चक्कर
और भी सुन्दर-सुन्दर कपड़े पहनकर_ _!

                                                   -निकिता पोरवाल (iCosmicDust )





Wednesday 11 January 2017

Black Scientist Bat (Fun Fantasy Song)

Prolouge:
Since this a fantasy song, the Bat in this song is a scientist and his home looks like a tiny pea which actually justify the concept of bigger inside..! so please read this song as a child imagination with not any kind of logic. HAVE FUN..!!


मटर के अंदर चमगादड़ का घर
जिसको खा गया एक कबूतर
मटर के अंदर चमगादड़ का घर
जिसको खा गया एक कबूतर

शाम को आया जब चमगादड़ लौटकर
नहीं मिला कही भी उसको अपना घर
घर को ढूंढता रहा रात भर
तब टिड्डा उससे बोला, मत भटक दर-ब-दर
तेरे घर को खा गया कबूतर
जो सोया है सामने वाले पेड़ पर
जब तक चमगादड़ पहुँचा वहाँ पर
तब तक कबूतर हो चुका था रफ़ुचक्कर
क्योंकि वो तो निकला था World Tour पर

मटर के अंदर चमगादड़ का घर
जिसको खा गया एक कबूतर

कबूतर ने गिराया समंदर पर वो मटर
जिससे हो गया पूरा काला समंदर
उधर चमगादड़ उसे ढूंढ-ढूंढ कर परेशान
पर नहीं मिला उसको कोई नामोनिशान
तब उल्लू उससे बोला, क्यूँ  होता है परेशान?
इतनी देर में मिल जाएगा दूसरा मकान
चमगादड़ बोला, अबे उल्लू, घर की किसको पड़ी है?
उसके अंदर रह गई Black Ink की पुड़ी है
जो कि अगर खुल गई तो आ जाएगा कहर


मैंने किया था एक temporary experiment
जो कि हो गया permanent
अगर वह पुड़ी खुल गई काली
तो फिर नहीं बचेगी तेरे गालों की लाली
न नीली, न पीली, न हरी सिर्फ़ काली
ये पूरी दुनिया हो जाएगी काली
बोला उल्लू, अबे कल्लू, तूने ऐसा किया क्यूँ?
हरी, पीली, लाल, नीली, रंग-बिरंगी ये दुनिया
भाती नहीं तुझे क्यूँ ?
हाँ मैंने ऐसा किया सुन बे उल्लू
क्यूंकि सब चिड़ाते है मुझे कल्लू
अब दिन के चार पहर हो या रात के पहर
नहीं रहा इनमें कोई भी अंतर
क्यूंकि हर जगह छा गया Black Ink का कहर
मटर के अंदर चमगादड़ का घर
जिसको खा गया एक कबूतर
साथ में लगाकर Double Cheese & Butter..!