Saturday 1 July 2017

४००० वर्ष वृद्ध एक वृक्ष से उसकी जीवन वार्ता (भाग-2)



अगले दिन सुबह ७ बजे...
शोधकर्ता वृक्ष के पास पहुँचती है...

शोधकर्ता (वृक्ष से):- सुप्रभात..!वृक्ष महोदय..!

वृक्ष जो कि प्रातः कालीन पक्षियों के कलरव को सुनने में मग्न था.. अचानक शोधकर्ता की आवाज़ सुन और इतनी सुबह उसे जंगल में देख हैरान हो जाता है। फिर शोधकर्ता से कहता है : सुप्रभात..! आप इतनी सुबह ही आ गई। रात भर ठीक से सोई भी है आप या नहीं?

शोधकर्ता:- जी आपकी इतनी रोमांचक कहानी सुनने को उत्सुक जो थी, ऐसा लगा की नींद मुझसे पहले ही जागकर आपके पास आपकी कहानी सुनने आ गई हो..!

वृक्ष:- हा हा हा..! चलिये अच्छी बात है। इस वन के सौंदर्य का भोंर के स्वर्णिम प्रकाश में आनंद उठाइये।
आइये..! (वृक्ष अपनी एक लम्बी, मजबूत, शाखा शोधकर्ता के आगे करता है।)
शोधकर्ता आश्चर्यचकित भाव से एक बार शाखा को और फिर वृक्ष को देखती है..!
वृक्ष:- घबराइये नहीं..! मैं आपको गिराऊँगा नहीं..!
शोधकर्ता:- उसका तो मुझे पूरा विश्वास है, बस आश्चर्यचकित हूँ..! किसी काल्पनिक जीवन को जीने जैसा लग रहा है यह सब..!

तत्पश्चात वह वृक्ष की उस शाखा पर खड़ी हो जाती है, वृक्ष उसे अपनी सर्वोत्कृष्ट शाखा पर बैठाता है और दोनों मिलकर सूर्योदय के पश्चात् का क्षितिज पार तक फैली वन सम्पदा का अत्यंत मनोहारी एवं नयनाभिराम दृश्य दृष्टित करने लगते है..!

कुछ समय पश्चात्...

वृक्ष:- कितना सीमित होकर रह गया है अब हम वृक्षों का जीवन..! हो सकता है कि अगले कुछ ही वर्षों में इस वन का एक भी वृक्ष जीवित न बचे। मनुष्य अपनी उपयोगिता लिये बिना विचार किये उनके टुकड़े - टुकड़े कर देगा। अपनी स्थिरता व स्थूलता के कारण हम तो निर्जीव समान ही है मनुष्य के लिए..! किन्तु वह तो हमारे साथ निवास कर रहे जीव-जंतुओं की भी चिंता नहीं करता। कालचक्र के इस घूर्णन के साथ-साथ मनुष्य इतना स्वार्थी बनता जा रहा है कि उसे स्वयं अपना पतन भी दिखाई नहीं दे रहा।
एक समय यही मनुष्य इस प्रकृति के साथ, हम वृक्षों के साथ, जीव-जंतुओं के साथ सामंजस्य बनाकर रहता था।

शोधकर्ता:- मनुष्य कब से प्रकृति के साथ सामंजस्य से रहने लगा ?  जितना इतिहास में मैंने झांककर देखा है, वह तो सदैव प्रकृति का शोषण ही करता आया है..!

वृक्ष:- जब मेरा वह वन जहाँ मैं अपनी माँ के साथ जीवन व्यतीत कर रहा था, वहाँ ज्वालामुखी फटने से हुई त्रासदी के बाद भूमि में कुछ इस प्रकार परिवर्तन आए कि वह पहले की अपेक्षा और अधिक समतल हो गई।  ज्यादा वृक्ष तो उस पर दोबारा से पल्ल्वित नहीं हो पाए किन्तु उस भूमि पर एक विशेष प्रकार के जीवों का एक छोटा सा समूह आकर बस गया जो कि दुसरे जीवों की चर्म या हम वृक्षों की छालों व पत्तों को जोड़कर उन्हें ओढ़ता था एवं उसकी कल्पना शक्ति अद्भुत थी।
वह समूह उस समतल हुई भूमि की ऊपरी मृदा को थोड़ा ढीला करता, फिर कुछ विशेष प्रकार के पौधों के बीज उसमे डालता, पानी से सींचता और एक समय पश्चात् जब उन पौधों पर कुछ फल लग जाते तो उन्हें काटकर एक सीमित ऊर्जा की अग्नि में पकाकर अपना भोजन करता। साथ में वह अन्य जीव-जंतुओं का शिकार भी करता, किन्तु सिर्फ उसकी आवश्यकता के अनुसार ही।
इसके साथ ही उसकी भाषा भी वन के अन्य प्राणियों की अपेक्षा कुछ भिन्न थी। सम्पूर्ण समूह में केवल चार या पांच लोग ही ऐसे थे जो कि वन के अन्य प्राणियों यहाँ तक कि कुछ सीमा तक हम वृक्षों से भी बात करने में समर्थ थे।

शोधकर्ता:- अच्छा..?!

वृक्ष:- जी हाँ..!और उन्हीं के कारण हमें यह ज्ञात हुआ था कि वे हमारा वृक्षों का, अन्य जीवों का, इस प्रकृति का सम्मान करते थे।
काष्ठ की आवश्यकता उन्हें उस समय भी रहती थी, किन्तु उसके लिए वे हम वृक्षों की शाखाओं को काटते.. मुख्य तना नहीं..! और उसके लिए इस प्रकृति को, हम वृक्षों को धन्यवाद देते व हमारा आदर-सम्मान करते। यही नियम अन्य जीव-जंतुओं के लिए भी लागू होता।  केवल आवश्यकता अनुसार ही शिकार किया जाता व उसके लिए इस प्रकृति का आभार प्रकट किया जाता।

शोधकर्ता:- अरे हाँ..! इस प्रकार के कुछ आदिवासी कबीलों के बारे में पढ़ा है मैंने।

वृक्ष:- जी..! ऐसे ही एक कबीले ने हमारे वन में आश्रय लिया था, जो कि बहुत फला-फूला। इतना कि उस कबीले की छोटी सी बस्ती ने धीरे-धीरे गांव और फिर एक विस्तृत क्षेत्र में फैले समृद्ध राज्य का रूप ले लिया।

शोधकर्ता:- और इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में आपका जंगल बचा या वह मानव के इस सांस्कृतिक विकास की भेंट चढ़ गया ?

वृक्ष:- अधिकांशतः तो बच गया, किन्तु फिर भी वन का काफ़ी भाग इस विकास की भेंट चढ़ा।
एक दृष्टिकोण से देखा जाए तो शायद यहीं-कहीं  से हमारे अस्तित्व का हरण प्रारम्भ हो गया था। क्यूँकि इसके पश्चात प्राकृतिक संसाधनों का दोहन लगातार बढ़ता ही गया; कभी कम नहीं हुआ।

शोधकर्ता:- आपने स्वयं इसका सामना कैसे किया ? कैसे आपका अस्तित्व बच गया इस विकास की बलि चढ़ने से..?

वृक्ष:- वैसे इसके लिये तो मैं आप मनुष्यों का ही धन्यवाद देना चाहूँगा, क्यूंकि मैं तो अचल वृक्ष था उस समय कि अपने बचाव के लिए कुछ कर सकूँ।

शोधकर्ता:- वो कैसे ?

वृक्ष:- जब मनुष्यों का वह समूह वहाँ बसने के लिए आया था।  उस समय उनके समूह के वे लोग जो हमसे बात कर सकते थे, उन्होंने वन के कुछ वृक्षों को किसी भी प्रकार की हानि न पहुंचाने की हिदायत दे दी थी और भाग्यवश मैं भी उन वृक्षों में से एक था। जिन्हें उन्होंने सर्वाधिक आदर-सम्मान दिया था।

शोधकर्ता:- तात्पर्य यह है कि आप उन आदरणीय वृक्षों में से एक बन गए थे उनके लिए..!

वृक्ष:- जी हाँ...! बिल्कुल सही अंदाजा लगाया आपने।

शोधकर्ता:- अर्थात यदि आज आप अपने मूल स्थान से हिले नहीं होते तो किसी शहर के बीच में अपने इस विशालकाय स्वरुप के साथ खड़े होते।

वृक्ष:- अरे नहीं..! मनुष्यों की जिस सभ्यता का स्वर्णिम विकास मेरे चारों ओर हुआ था, उसका पतन भी समयांतर के साथ मेरे नेत्रों के समक्ष ही हुआ।
और उसके बाकी बचे अवशेष भी शनैः-शनैः प्रकृति में विलोपित हो गए।

शोधकर्ता:- ओह..! लेकिन कैसे ?? इतनी विकसित सभ्यता का पतन अचानक किस प्रकार हुआ ?

 वृक्ष:- एक प्राकृतिक आपदा से। मनुष्यों ने अपने ऐश्वर्य और सांस्कृतिक विकास के लिए प्रकृति और वृक्षों का जो दोहन किया, उससे वहाँ की भूमि की पकड़ ढीली हो गई। सक्रिय ज्वालामुखी निकट होने के कारण वहाँ वैसे भी भूकंप आते रहते थे।
ऐसे ही एक दिन इतनी अधिक तीव्रता का भूकंप आया कि सम्पूर्ण साम्राज्य कुछ ही क्षणों में भूमि में विलीन हो गया। सिर्फ कुछ अवशेष ही उसकी उपस्थिति के प्रमाण के लिए बाकी रह गए। बहुत ही विनाशकारी दिवस था वो, जब उन क्षणों के लिये मुझ जैसा विशालकाय वृक्ष भी अस्थिर हो गया था।

शोधकर्ता:- ओह..! तो क्या उस समय से ही आपने वह स्थान त्याग करने का निश्चय किया ? और स्थिर से गतिमान होने की ओर प्रयास प्रारम्भ किये ?

वृक्ष:- हा हा हा..! अरे नहीं..! वह स्थान मेरी मातृभूमि थी, सिर्फ एक भूकंप के झटके से मैं उस स्थान को त्यागने का निर्णय कैसे कर सकता था ?
उसके पश्चात् तो प्रकृति पुनः फली-फूली और उस वन सम्पदा को और भी अधिक सौंदर्य से सम्पूरित कर दिया।

शोधकर्ता:- तो फिर आपके मन में ये स्थिरता से गतिमान होने का विचार कैसे, कब और क्यूँ आया ?

वृक्ष:- जैसा कि मैंने आपको आरम्भ में बताया था, मेरे अंदर जीवन ऊर्जा और उत्साह अन्य वृक्षों की तुलना में कहीं अधिक था और उसी के परिणामस्वरूप मैं इस विशाल काया और लम्बी आयु को प्राप्त कर सका, किन्तु "अति सर्वत्र वर्जयेत" ये कथन तो आपने सुना ही होगा।

शोधकर्ता:- जी हाँ..!!

वृक्ष:- बस इसी जीवन ऊर्जा से मिली लम्बी आयु के कारण मैं उस समय भी जीवित रहा जब मेरा संपूर्ण वन नष्ट हो एक वीरान बंजर में परिवर्तित होने लग गया। मेरी जड़ें भूमि में अधिक गहराई तक धँसी होने के कारण मुझे कभी पोषण की कमी नहीं हुई अपितु बेहतर पोषण के लिए वे और अधिक गहराई में जाती चली गई।
अंततः उस वीरान बंजर भूमि में मैं अकेला वृक्ष बाकी रह गया।  यहाँ तक कि धीरे-धीरे मेरे ऊपर निवास कर रहे प्राणियों के निकुंज भी वीरान हो गए।
बस यही क्षण था जब मैंने भी प्रथम बार अपने जीवन से मुक्ति की बात सोची थी।

शोधकर्ता:- ओह..!!

वृक्ष:- जी हाँ..! मेरे हृदय में स्थिरता से गतिमान का विचार सिर्फ इस हेय से आया था कि मैं अपने जीवन की इति कर सकूँ।
और आप विश्वास नहीं करेगी उसके पश्चात एक लम्बे समय तक मैंने इसी के लिए कोशिश की।

शोधकर्ता:- मुझे ज्ञात ही नहीं था कि एक वृक्ष भी निराशावादी हो सकता है।
तो फिर आपकी इस निराशा को पुनः आशा के पंख किस प्रकार मिले ? मेरा तात्पर्य है कि आपने कब इस निराशावादी विचार को अपने हृदय से निकाल स्वयं को पुनः जीवन ऊर्जा से भर लिया ??

वृक्ष:- अपने जीवन की इति करने के लिए मैं शनैः-शनैः अपनी जड़ों को भूमि की गहराइयों से ऊपर लाने की कोशिश करने लगा। एक लम्बी समयावधि व्यतीत होने के पश्चात् मुझे ज्ञात हुआ कि मैं तो उस स्थान पर हूँ ही नहीं जहाँ मैं हुआ करता था। मैं स्वयं की इति श्री में ही इतना तल्लीन था कि मैंने गौर ही नहीं किया कि कब मैं उस बंजर भूमि से निकलकर एक नवीन वन में आ पंहुचा था। मैं उस जंगल के किनारे पर खड़ा था जिसके पास मनुष्यों का एक विशाल शहर बसता था और जब अपने आस-पास के साथी वृक्षों से बात की तब पता लगा कि वे सभी वृक्ष मुझे यात्री वृक्ष के नाम से पुकारते थे, जो कि एक लम्बे समय से यात्रा कर रहा है।

शोधकर्ता:- एक यात्री वृक्ष..! बहुत ही अद्भुत नाम है।

वृक्ष:- जी हाँ..! और बस इस नामकरण के पश्चात् ही मैं कभी रुका नहीं। जीवन जीने का एक नया ध्येय मिल चूका था मुझे अब। और सदैव अपनी काया को और अधिक चलायमान करने की कोशिश करता रहा। प्रकृति की भाषा तो ज्ञात थी ही, किन्तु इसके साथ ही मनुष्यों की भाषाएँ भी सीखी। उनकी कितनी ही संस्कृतियों के उत्थान और पतन देखे। और प्रतिदिन कुछ नवीन सीखता रहा और अपने जीवन को रोमाँचों से परिपूर्ण करता रहा

शोधकर्ता:- ये मेरा सौभाग्य है कि मुझे आपसे मिलने एवं बात-चित करने का अवसर प्राप्त हुआ। वास्तविक रूप में देखा जाए तो आप अपने अंदर एक सम्पूर्ण इतिहास को संजोए हुए है। कोशिश यही करूंगी कि आपसे मुलाकातों का ये सिलसिला जारी रहे और मैं जीवन और इतिहास से सम्बंधित कई उपयोगी बातें आपसे जान पाऊँ।

वृक्ष:- जी बिलकुल..! तब तक के लिए शुभ रात्रि..!

शोधकर्ता:- जी धन्यवाद..! शुभ रात्रि..!!








  

2 comments:

  1. Wonderful. Loved the conversation and especially by imagining it. 😊

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    1. Thank you so much..! I am glad that you liked it..! :)

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