Sunday 3 February 2019

प्रेम का वीभत्स रूप


कुछ साल पहले, एक रिश्ता टूटा था, कुछ इस तरह कि उसके टूटने की ख़ामोशी के शोर से बचने की कोशिश में उसकी कुछ किरचें मन में चुभ गई, जिससे मन की ज़मीन पर एक गहरा ज़ख्म उभर आया। 

कहते है.. कि समय के साथ हर ज़ख्म भर जाता है, ठीक उसी तरह इसे भी भर जाना चहिये था, लेकिन_ कुछ उल्टा हुआ; समय के साथ ये ज़ख्म और अधिक गहरा होता गया। तीख़ीं, नुकीली किरचें, जो चुभी थी मन की कोमल ज़मीन में, उन्हें निकालने की मैं जितनी नाकाम कोशिश करती, वो उतनी ही गहराई में उतरती जाती और ज़ख्म को और अधिक गहरा करती जाती। अंततः वो ज़ख्म नासूर बन गया, एक कभी न भरने वाला लाइलाज़ ज़ख्म और चारों ओर फैलने लगी_ उस ज़ख्म की सड़न और बदबू..!!

तभी अचानक_! एक और मन मेरे मन के करीब आया। उसकी धरती पर उगे प्रेम के बीज को मेरे मन की नासूर धरती पर उगाने। बोला वह कि "सिर्फ प्रेम का वृक्ष ही इस नासूर को भर सकता है और उस पर जो फूल खिलेंगे, उनकी खुश्बू से ये दुर्गन्ध भी चली जायेगी। मेरे मन की धरती दोबारा से हरी-भरी होकर महकने लगेगी।"

उस दूसरे मन ने मेरे मन की धरती पर प्रेम का बीज तो डाल दिया, लेकिन उसकी देख-रेख करना और उसे संरक्षण देना भूल गया। 

किन्तु बीज़ तो नासूर बनी उस वीभत्स दलदली ज़मीन में, नुकीली किरचों के बीच जा धँस गया था, तो उससे पेड़ निकलना भी स्वाभाविक था। बस हुआ ये कि ज़ख्म के काले पीप रुपी जल और तपे हुए अश्रुओं के खार की खाद उसे मिली और उसी से उसकी परवरिश और विकास हुआ। 

आज मन की उस नासूर ज़मीन पर लगे प्रेम के वीभत्स वृक्ष में फूल आये है, जिनकी काँटों से भी तीख़ी-नुकीली पंखुड़ियों ने गिरकर मन की भूमि को और अधिक ज़ख़्मी कर दिया है और उन फूलों से निकली दुर्गन्ध से मन के अंतर में बसा पूरा स्वप्न संसार दूषित हो गया है। 

"टूटा रिश्ता, उसकी नुकीली किरचें, चुभी किरचों से बने ज़ख्म, ज़ख्मों से बना नासूर, उस नासूर में उगा वीभत्स प्रेम वृक्ष और उस वीभत्स वृक्ष के दुर्गन्धित कांटेदार पुष्प...!" एक कोमल मन का पूरा का पूरा स्वप्न लोक संक्रमित कर गए। निराशा के बादल इतने काले और घने हो गए कि आशा की किरण का प्रकाश भी पी गए।

प्रेम का इतना वीभत्स रूप भी होता है, ये पता न था मुझे..!! 


                                           -iCosmicDust (निकिता)           


                                                                      

Saturday 12 January 2019

सालगिरह का तोहफ़ा



हवा के झोंके से उड़कर जब खिड़की का सफ़ेद झीना पर्दा उससे आकर टकराया, तब अचानक वह अपने ख़यालों की दुनिया से वापस होश में आई। अपने स्टोररूम की छोटी-सी खिड़की में सिमटकर वह बैठी हुई थी, जिसके बाहर लगी घंटी हवा से टकराकर एकांत को छेड़ रही थी। 
इस स्टोररूम में कबाड़ कम और उसके द्वारा किया गया पुरातन वस्तुओं का संग्रह अधिक था, अपने इस संग्रह से उसने कमरे की ढलती छत को भी नहीं छोड़ा था, जिनसे अलंकृत हो वह छोटा-सा स्टोररूम इस युग का ही नहीं प्रतीत होता था। 
कितना शौक था उसे पुरातन वस्तुओं के संग्रह का_ कलाकृतियाँ, मूर्तियाँ, आभूषण, हथियार और भी कितनी ही प्रसिद्ध पुरातन वस्तुओं की हूबहू नक़ल उसके संग्रह में थी।
अभी वह छोटी सी,पतली, तेज़-नुकीली तलवार को निहार रही थी_ यह वह आखिरी एंटीक थी जो उसने शादी के पहले खरीदी थी। 
उसके पति को उसका यह शौक फालतू-खर्च लगता था और सारा संग्रह एक कबाड़; इसीलिए उसने इस कबाड़ को ऊपर स्टोर रूम में डलवा दिया था। 
और भी बहुत कुछ बदला था इसी तरह उसके जीवन में_ उसका पति परमेश्वर होकर वह हैवान था जो हर-रोज़ अपनी हैवानियत की परख उसके उपर करता था। 
वह यह सब सोच ही रही थी कि कार के हॉर्न की आवाज़ आती है। और अपने अंदर दौड़ती ठंडी सिहरन के साथ वह दरवाजा खोलने चली जाती है।
दरवाज़ा खोलते ही वह देखती है कि उसका पति अपने हाथ में एक बड़ा-सा गिफ़्ट लिए मुस्कुरा रहा है, जिस पर लिखा है "For my lovely wife- Happy Wedding Anniversary"
"शादी की सालगिरह मुबारक हो मृदुल and I am so sorry, मुझे माफ़ कर दो, तुमसे इश्क़ करते-करते तुम्हीं से खता कर बैठा, मुझे तुमसे इस तरह बर्ताव नहीं करना चाहिए थाइतना कहते हुए संजीव मृदुल को वह तोहफा दे देता है। मुस्कुराते हुए मृदुल वह तोहफा ले लेती है और संजीव के साथ अंदर जाती है।
ड्राइंग रूम में लगे लाल सोफ़े पर जैसे ही वे आकर बैठते है संजीव बड़ी-सी मुस्कराहट के साथ मृदुल को देखने लगता है।
 "You are so beautiful and so sweetheart, मैं सचमुच बेवकूफ़ था जो तुमसे झगड़ा किये बैठा था इतने दिनों से_ लेकिन कोई बात नहीं, आज़ हमारी शादी की सालगिरह है और हम लोग इसे सेलिब्रेट करेंगे और मुझे पक्का यकीन है कि ये तोहफ़ा भी तुम्हें बहुत पसंद आएगा।इतना कहकर वह मृदुल को किस करने के लिए आगे झुकता है।
"मैं आपकी कॉफ़ी बनाकर लाती हूँ" यह कहते हुए मृदुल उठकर संजीव को नज़रअंदाज़ कर किचन में चली जाती है। 
“And have some patience darling, मैं फ्रेश होकर आता हूँ फिर हम ये गिफ्ट साथ में खोलेंगे, I desperately want to see your expressions when you will open this gift”
यह कहते हुए संजीव फ़्रेश होने लिए चला जाता है। 
कॉफ़ी का मग टेबल पर रखते हुए और उस गिफ़्ट को देखते हुए  मृदुल सोफ़े पर बैठती है तो उसे अहसास होता है कि वह पुरातन-तलवार जिसे वह स्टोररूम में निहार रही थी, उसकी कमर में बँधी है। ख़्यालो-ख़्यालो में कब उसने उसे कमर में बाँधा और वैसे ही नीचे गई उसे ध्यान ही नहीं था। कमर से निकालकर तलवार वह टेबल पर रखती है और तोहफ़ा उठाकर खोलने लगती है।
चार मोटी,लम्बी,सफ़ेद रस्सियाँ जिनमें हर रस्सी की गांठ पर एक टैग बँधा हुआ_ उनमें से दो में संजीव ने अपने हाथों से कुछ लिखा था और बाकी दो में कुछ ड्राइंग बनी थी_
पहला टैग वह पढ़ती है-
"कंगन-चूड़ी भी अपना गुरुर भूल जाएँगे जब तेरे इन खूबसूरत हाथों में इन्हें पहना देखेंगे"
"पायलों की चमक भी फ़ीकी पड़ जाएगी जब ये तेरे पैरों की शोभा बढ़ाएगी" और इस दूसरे टैग को पढ़ने के साथ ही वह झटके से गिफ़्ट साइड में फेंक देती है_   
यह था उसका सालगिरह का तोहफ़ा_  
दहशत से घिरी वह बुरी तरह काँपने लगती है।
फ़्रेश होकर उसका पति उसके पास आकर बैठता है और वह कॉफ़ी का मग, जिससे वह कॉफ़ी पीने को होता हैज़मीन पर गिर जाता है, नीचे बिछे कालीन पर सारी कॉफ़ी फ़ैल जाती है जिसमें लाल सोफ़े की दीवार से बहता गाढ़ा लाल ख़ून आकर मिल जाता है। 
वह पतली-नुकीली तलवार उसने अपने पति के दिल के आर-पार कर दी थी।
“This time you crossed all the limits Sanjeev and that’s enough.” इतना कहते हुए ख़ून के छींटों से सना अपना मुँह साफ़ कर वह अंदर अपनी नन्ही-सी बेटी के पास चली जाती है जो नींद से जागकर अपनी माँ को आसपास पाकर रोने लगी थी। 
                                                                                                                          
                                                                                                                                           -iCosmicDust












Sunday 8 July 2018

चमगादड़ का घर या मटर ?

And this is the first time I do a video recording of me reciting this quirky poem..!

Hope This will blast the logic of your mind..! :D



Sunday 15 April 2018

प्यार की परिभाषा


वो एक अच्छा प्रेमी युगल था।
लड़का, जो कि पहली मुलाकात से लेकर जन्मदिन तक की हर तारीख़ याद रखता था, और वहीं लड़की, सबसे बड़ी भुलक्कड़ थी। हर विशेष मौके पर वह उसे फूलों के बड़े-बड़े गुलदस्ते देता, लेकिन लड़की का पसंदीदा गुलदस्ता छत पर गमलों का वह बगीचा था जो दोनों ने साथ मिलकर लगाया था। वह उसे सबसे अच्छी होटल में candlelight Dinner के लिये लेके जाता था, लेकिन लड़की के लिए सबसे Romantic Dinner वह था, जब उसके उबलते तेल से जलने के डर को दूर करने के लिये लड़के ने पास खड़े होकर उससे पकौड़े बनवाए थे; और २ घंटे में बने उन पकौड़ों को सर्दियों की ठिठुरती रात में छत पर बैठकर एक कम्बल ओढ़े दोनों ने खाया था। लड़की को public vehicle में  किसी तरह की तकलीफ़ न हो, इसलिए वह उसे हमेंशा अपनी कार में लेके जाता था, उसका पूरा ख्याल रखता था और लड़की उस दिन की याद पर आज भी हँसती है जब लड़के ने उसकी चुनौती को पूरा करने के लिये १५-२० सालों बाद वापस साइकिल चलाई थी और पंक्चर होने पर दोनों गिर गए थे।
दोनों को आधी रात में long drive पर जाना पसंद था, लेकिन यहाँ भी लड़की की सबसे पसंदीदा long drive वह थी जब इसी तरह एक रात कार ख़राब हो गई थी और सारी रात अँधेरे जंगल में मोबाइल पर कार्टून फिल्में देखकर बिताई थीऔर उस रात वही लड़का अंदर ही अंदर परेशान था कि कोई अनहोनी न हो जाए।
ऐसे कितने ही अनगिनत पल थे !!
वह किताबों में प्यार की परिभाषाएँ पढ़ता और उन्हीं के अनुसार उस लड़की से प्यार करता, वहीं दूसरी ओर वह लड़की हर छोटे-छोटे पल में अपने प्यार को जीती !!
और इसी तरह एक बार जब उसके प्यार की परिभाषा पूरी नहीं हुई, तो धीरे-धीरे उसे ये लगने लगा कि उसका ये प्यार, प्यार नहीं है और एक दिन अनमने मन से वह चला गया, उसे छोड़कर।
लड़की ने उसके साथ बिताए पलों को अपनी यादों के पिटारे में कहीं महफूज़ करके रख दिया।
लेकिन सुना है कि अब उसे पकौड़े बनाने में डर नहीं लगता और उसकी छत के पौधे भी काफ़ी बड़े हो गए है, जो रंग-बिरंगे फूलों से लदे हुए है। आज भी वह हर रोज़ रात को घंटों तक सितारों को उसके साथ बिताए पलों की कहानियाँ सुनाती रहती है; उन्हीं सितारों को जिन्हें वह अपनी balcony से ताकता रहता है और उनको आपस में जोड़-जोड़ कर उसका चेहरा बनाता रहता है।
वह एक अच्छा प्रेमी युगल था। दोनों को एक दूसरे से बेहद प्यार था। बस..!! प्यार की परिभाषा ने दोनों को एक-दूसरे से अलग कर दिया..!!


Monday 5 February 2018

चलो..! खेलते है...!!



पलंग पर लेटे-लेटे जब_
अपने कमरे की खिड़की से बाहर झाँककर
मैं, आकाश की नयी धुली चादर ताक रहा था..!
कि, तभी_
एक गुन-गुन करता भँवरा आया,
और अंदर झाँककर बोला_
बाहर आओ ना_! खेलते है...!!
बाग़ में खिले फूलों की ख़ुश्बू _
फ़िर कुछ नयी तितलियों को खींच लाई है..!
चलो! उन्हें छेड़ते और पकड़ते है..!
फ़िर उनके पंखों के कच्चे रंगों से_
एक-दूसरे को रंगते है..!
और अम्बरी पर बैठी कोयल के_
सुरों में नये सुर के साथ किलोलते है..!
बाहर आओ ना_! खेलते है...!!

थोड़ी देर बाद_
चिड़िया भी आई! और चिड़ा भी..!
और वो कबूतर भी_
कि जिसके कितने ही अंडे_
मेरे रोशनदान में पल कर बढ़े हुए है_!
वे सब झाँककर बोले_
बाहर आओ ना_! खेलते है...!!
पेड़ों पर उल्टा लटककर_
फ़िर से_ चमगादड़ों को चिढ़ाते है..!
और, कचे-पके से आम खाकर,
बरगद की लटकती शाखों पर_
चलो, हवा से भी तेज़ झूलते है..!!
बाहर आओ ना_! खेलते है...!!

रात हुई_!!
चाँद भी आया..!!
पहले हौले से उसने तांका..
फ़िर पूरा अंदर झाँका
और बोला_
बाहर आओ ना_! खेलते है...!!
उस सूखे पेड़ की शाख़ों में_
फ़िर कोई आवारा बादल अटकाते है..!
और जुगनूओं को पकड़-पकड़ कर,
टांक कर उसमें, उसको सजाते है..!!
फ़िर चुपके से जाकर_
चलो_ उस खड़ूस उल्लू को,
मीठी गुदगुदियों से
ठिठोलते है..!
बाहर आओ ना_! खेलते है...!!

सुबह हुई..!
सूरज़ भी आया_!
और अपने सुर्ख़ लाल चेहरे से,
खिड़की के अंदर,
एकदम से वो झाँका..!
जिसको देखकर लगा कि_
फ़िर से समुद्र की मछलियाँ चुराके खाने पर
माँ ने उसको तमाचा मारा है_!
लेकिन, फ़िर भी वो भागकर आ गया
और झांककर बोला_
बाहर आओ ना_! खेलते है...!!
आज़ फ़िर मैं अपने अंदर छुपाकर_
बहुत सारी बर्फ़ ले आया हूँ..!!
चलो..!
लोटू,छोटू, पिंटू, कालू _
सबकी कॉलर में वो बर्फ़ उड़ेलते है..!!
बाहर आओ ना_! खेलते है...!!

और मैं..!!
मैं सबको बस यही कहता रहा..
कि थोड़ा बुख़ार है मुझे_
माँ डाँटेगी..!!

परसों_ जब हमने_
वो जोर से गरजते अजनबी बादलों के साथ
जो कुश्ती की थी..!!
तो उनके पसीने की शीतल बूंदों में भीगने से
मेरे शरीर का ज्वर थोड़ा बढ़ गया..!!
अस्सी साल का बूढ़ा हूँ तो क्या..!!??
माँ के लिये, अभी भी बच्चा ही हूँ मैं..!!
अभी यदि _
तीन दिन के आराम के पहले बाहर निकला_
तो माँ डाँटेगी..!!

लेकिन _
मन तो मेरा भी है,
कुछ खेलते है..!
क्यूँ ना आज_
तुम सब अंदर आ जाओ_!
कि कुछ खेलते है..!!



-iCosmicDust (निकिता पोरवाल)





Monday 22 January 2018

माकड़ माई! माकड़ माई!

और इस बार ज़्यादा बड़ी गुस्ताख़ी की है,
दुनिया की विभिन्न संस्कृतियों और जातीय-जनजातीय परम्पराओं की लोक कथाओं में से इस चरित्र को ढूँढकर, इस चरित्र का एक-एक मोती इकट्ठा करके उसे इस कविता में पिरोने की कोशिश की है...
और साथ में ये भी कोशिश की है कि लोक कथाओं की तरह ही इसकी मासूमियत बरक़रार रहे..
हालाँकि अभी कच्ची हूँ, और शायद मुझे इन लोक कथाओं को छेड़ना भी चाहिए या नहीं, ये भी नहीं पता.. लेकिन फिर भी ये जुर्रत की है, क्यूँकि मुझे अपना घर और सुकून दोनों इन्हीं में मिलता है..


पेश है मेरी ये नयी कविता



कहानियों का पिटारा लेके_
देखो! देखो! कौन है आई..??!!
माकड़ माई! माकड़ माई!
अपने पिटारे के हर पहलू, हर कोने में_ _
कितनी ही अनगिनत कहानियां, वो है सजाकर लाई_!!
अरे देखो !! आई है माकड़ माई !

ऐसी कोई कहानी नहीं_
जो मिली उसके पिटारे में नहीं !

उसकी इन कहानियों में है_
कोई कहानी तितली जैसी
रंग-बिरंगी कोमल सी_
एक से दूसरे फूल तक
बस उड़ती जाती है_ _!
कोई कहानी चिड़िया जैसी_
गाती और चहचहाती है_!
कोई कहानी सांप सी रेंगती_
पूरे शरीर में सिहरन भर जाती है_!
तो कोई कहानी बब्बर शेर सी_
ज़ोर से दहाड़ती है _ !!
ऐसी ही रोमांचक कहानियाँ_
सुनाने को है वो फिर से आई_ _
दादी-नानी से भी लाड़ली_
माकड़ माई! माकड़ माई!

रात को जब, सब सोते है_
तब वह सबके सपनों को बुनती है_
अच्छे - मीठे सपनों को_
वह हम तक पहुँचाती है_!
और, काले - बुरे सपनों को वह_
उल्लू के साथ_
पहुँचाती है अपनी गुराहों में_
और कैद कर लेती है उन्हें_
मकड़ जाल से बनी सुराहों में_!
उसकी निगरानी में हमने
रातों को चैन की नींद है पाई_!!
अरे हाँ_!!
इस रात और बारिश को भी तो_
वो ही आकाश से माँगकर लाई_!
बड़े से, सफ़ेद आदम भेड़िये पर बैठकर
जो है आई_!
माकड़ माई! माकड़ माई!

ना जाने कितनी बूढ़ी है..??!!
मगर.. इतनी लम्बी उसकी ठोड़ी है..!!
अपने आठों हाथ-पैरों से वह_
सबका ताना-बाना बुनती रहती है_
इस उमर में भी वह
कभी एक जगह नहीं ठहरती है_!!
बच्चे, जानवर, पौधे, पत्थर,
सबकी कहानी वह लिखती है_!
और रात के घने अँधेरे में_
आकाश में जा_
तारों से बातें करती है_!!
और गरजते बादलों से
बिजलियाँ चुरा लाती है_!!
जो अँधेरे में भटके पथिकों को
रास्ता बतलाती है_!!
इसी अँधेरे जंगल में_
आज फिर एक बच्चा जन्मा_!
और उसको दी उसकी चीख़ सुनाई _
तो अपनी कहानियों का पिटारा लेके_
पानी पर चलकर_
जो दौड़ी-दौड़ी, भागी-भागी है आई_!!
वो है, माकड़ माई! माकड़ माई!

आकाश के गर्भ में बसे शहर की
वह इकलौती साम्राज्ञी है_!
अपनी आठों आँखों से जिसने
भूत, भविष्य और वर्तमान की_
हर एक घटना देखी है_!!
जिसके मधुर गीतों को सुन_
सुबह का सूरज उगता है_!
और रात का चाँद चमकता है_!!
किन्तु ये बंजारन फिर भी_
सिर्फ़, कहानियों की साम्राज्ञी ही कहाई_!!
उन्हीं कहानियों का पिटारा लेके
देखो! आज फिर से है जो आई_
माकड़ माई! माकड़ माई!

जिनको सुनने के लिये_
हम बच्चों के संग
हाथी, शेर, गिलहरी, खरगोश,
चिड़िया और तितली भी है आई_!!
यहाँ तक कि वो साँप भी आया_
जिसको देता नहीं सुनाई_!!
क्यूँकि_
कहानियों का कुछ ऐसा ही
रोमांचक ताना-बाना
बुनती है ये माकड़ माई_!!

जो सुनाती सबको, सबकी कहानियाँ_ !!
आज मैंने है उसकी कहानी सुनाई_ !!
अज़ीब है_ !! फिर भी सबकी लाड़ली_
है ये हमारी माकड़ माई_!!


-iCosmicDust (निकिता पोरवाल)







Sunday 14 January 2018

Rockstar Crow



एक था कौआ बड़ा सयाना
जिसको पसंद था गाना गाना
पर सब उड़ाते थे उसका मज़ाक
इसलिए वो करता था अकेले में रियाज़

धीरे-धीरे उसको आ गया गाना गाना
और वॉयलिन, गिटार, ड्रम को भी बजाना

फिर उसने सोचा क्यूँ न अपनी सुरीली आवाज़
लोगों तक पहुँचाऊँ
अपना टैलेंट मैं सबको दिखाऊँ
स्टेज शोज करुँ, झुमु, नाचूँ, गाऊं
क्यूँ न मैं भी रॉकस्टार कहलाऊं
फिर कोई बनेगा मेरा भी दिवाना
और मेरे गानों को सुनेगा ता ना ना ना

अपने कॉन्सर्ट के उसने पोस्टर्स छपवाए
पेम्पलेट्स,होर्डिंग्स और बैनर्स भी लगवाए
जिसको सबने देखा पड़ा और सुना भी
बनाया उसका मज़ाक और किया अनसुना भी
बोले अब कांव-कांव भी करेगा गाना बजाना
पगला गया है वो कौआ सयाना

कौआ अब हो चूका था पूरा निराश
टूट चुकी थी उसके दिल की हर आस
तभी
उसने देखा एक सिंगिंग कॉम्पीटीशन का पोस्टर
और उसके अंदर उठी उम्मीदों की नयी लहर
इस बार वो पहुँचा स्टेज पर
एक कोयल का नकली कॉस्ट्यूम पहनकर
उसने फिर शुरू किया गाना बजाना
और हर एक को कर दिया अपना दिवाना

श्रीरामचन्द्र कह गए सिया से
एक ऐसा कलयुग आएगा
जब कोयल बैठेगी श्रोता बन
और कौआ गाना गाएगा
वो रॉकस्टार कहलाएगा
हर कोई हो जाएगा उसका दीवाना
धूम ताना धूम ताना ताना ना ना

-iCosmicDust(निकिता पोरवाल)


संक्रांति का पर्व


धुंधले-धुंधले आसमां पर
आज लगा पतंगों का मेला है_
आज हर पतंग के साथ झूमता
उसका धागा भी रंगीला है_

दूर-दराज़ के देश-देश से
विविध-विचित्र पतंगें आई है
जिनके रंग और रूपों की छटा
सबको बड़ी सुहाई है

धूम्रवर्णी आसमां पर
रूपों व रंगों का जादू फैला है
कि आज फिर लगा
मनचली पतंगों का मेला है
जिनका हर एक लहराता
धागा भी रंगीला है

तभी_
नीली कर्क पतंग के
उस लाल मकर से मिल गए नैन
और भिड़ गया टांका
जो उड़ रही थी सबसे ऊंचा उस ओर
किन्तु_
उससे मिलने की कोशिश में
कट गई उस पतंग की डोर
अरे!
कट गई नीली कर्क पतंग
और मकर का परचम लहराया है
देखने को यह सब नटखट नज़ारा
सूरज भी थोड़ा और करीब आया है
कि आसमां ने आज
संक्रांति का पर्व मनाया है..!

-iCosmicDust (निकिता पोरवाल )


Monday 1 January 2018

Troll



सारी दुनिया का Reaction हो गया ठंडा
जब एक बकरी ने दिया अंडा

अंडा भी वो ऐसा, जिसके ऊपर थे बाल
जिनका रंग था, बिल्कुल चटक लाल

लाल बालों वाला था वह अंडा
कोई भी जिसका समझ सका न फंडा

सब लगे, इस पहेली को सुलझाने में
या, और ज्यादा उलझाने में

देख रहा था यह सब_
चरवाहे का बेटा
होकर हैरान..!!
कि एक बालों वाले अंडे से सब
हो गए, कितने परेशान..!!

सभी ने निकाल ली बकरी की
History और Geography
with Past,Present और Future Tense ..!
लेकिन_
किसी ने भी चरवाहे के उस बेटे से न पूछा_
लगा के अपना Common Sense..
जो चराता था उस बकरी को
हाथ में लेके डंडा_ _!
जिसने दिया था वो
बालों वाला अंडा..!!

जब किसी को समझ न आया
कि आख़िर क्या है झोल..?
तब उस नन्हे बच्चे ने
खोली पोल_!
कि लाल बालों वाला वह अंडा
है एक Troll ..!!
जो रहता है छिपकर
बनाकर ज़मीन में गहरे Hole ..!!

उस गुफ़ा में मेरी बकरी खा गई थी उसे
जो निकलती है बाड़े से..!
और अब वो वापस बाहर निकला है
उस बकरी के पिछवाड़े से..!!

यह सुनकर बर्फ़ सा जम गया वह Reaction
जो हो गया था ठंडा...!!
कि निकला एक Troll
वह बालों वाला अंडा...!!

अरे भला.! कैसे दे सकती है बकरी
कोई  अंडा.??!
किसी ने ना माना ये फंडा..!!



                                                                                                  -iCosmicDust (निकिता पोरवाल )


Sunday 31 December 2017

कहानी ड्रैगन की


आसमां के पालने से गिरकर
धरती पर एक और तारा टूटा
जिससे एक बड़े लम्बे काले साँप का_
सिर फूटा
जो बैठा था चुपचाप,
अपने शिकार की तांक में
कि कोई तो पकड़ में आ जाए
इस फ़िराक़ में_

फूटे सिर के साथ,
साँप कुछ यूँ हो गया बेहोश
जैसे मधु पीकर सब हो जाते है मदहोश
इधर_
इतनी ऊँचाई से गिरने की गर्मी से
पिघल गया पूरा तारा
और घुल-मिल गया साँप के शरीर में
वो तो सारा का सारा
आसमां से टूटा आज एक अनोखा तारा

जब साँप ने झटका अपने सिर को
आने पर वापस होश
तो पता लगा उसे कि
निकल आये है उसके दो सींग
जब वो था बेहोश..!
और जानकर ये तारे के तो उड़ गए होश_!

पिघला तारा, कर रहा था हर कोशिश
साँप से अलग होने की
लगा रहा था वह, हर पेंच और दाँव_!
लेकिन_
उसके अलग होने की इस नाक़ाम कोशिश में
निकल आए साँप के हाथ और पाँव..!
देखकर यह_
बदल गए दोनों के हाव-भाव..!

अब_
दोबारा कोशिश की होने की अलग
तारे ने हड़बड़ाकर
तो निकल आए, साँप के दो पंख_
फड़फड़ाकर_!

देखकर यह सब_
साँप की ज़ोर से चीख़ निकल गई_ !
और उस चीख़ से निकली आग से_
सामने की सूखी घास जल गई...!
जिसमें छुपी बैठी थी_
एक मोटी-ताज़ी गिलहरी_
जो अब आग में जल-भुन कर
हो गई थी कुरकुरी..!

भुनी गिलहरी की ख़ुश्बू से
तारे का मन ललचाया
और उसने साँप को उसकी ओर भगाया
लेकिन_
साँप आग से डरकर दूसरी दिशा में दौड़ा
और दोनों की इस उहापोह में
धरती पर रेंगने वाला साँप
पहली बार आसमां को उड़ा..!!

ये सब क्या, क्यूँ और कैसे हो रहा था ??
ना साँप, ना ही तारे को समझ आ रहा था_.!
अलग होने की कोशिश में वह तारा_
साँप में और ज़्यादा घुल-मिल कर
उसके नए अंग उगाता जा रहा था..!!

अंततः_
दोनों घुल-मिल कर हो गए एकचित्र_
और बन गया नया जीव
जो था बड़ा विचित्र_ !!

लगा रहा था वह बादलों में गोते
फैलाकर अपने लम्बे पर_
और चिड़ा रहा था पक्षियों को
उनसे भी ऊँचा तैरकर..!!

उड़ते-उड़ते उसने देखा कि
चल रहा है एक जगह
छिपकली और मगरमच्छ के बीच कॉम्पिटिशन
कि कौन बन पाता है
एक बेहतर ड्रैगन
तभी_
भीड़ में से कोई चिल्लाया
करके इशारा उसकी ओर
कि देखो_
वो रहा सबसे बेहतरीन ड्रैगन
जो उड़ रहा है उस छोर_!

शाम का वो नन्हा लाल तारा
जब टूटकर गिरा आसमां से उस साँप  पर
तो बना दिया उसको ड्रैगन..!!
क्यूँकि दूसरों की wish पूरी करना
ही है तारों का इकलौता passion ..!!


                                                                                                     -iCosmicDust (निकिता पोरवाल )





Saturday 18 November 2017

तब से है तुमसे प्यार प्रिये...!



जब दूसरी कक्षा में पहली बार
तुम दाख़िला लेकर आई थी_
नेकर शर्ट पहने, बैठकर बगल की बेंच पर_
मुझ पर टेढ़ी नज़र गिराई थी_
तब से है तुमसे प्यार प्रिये...!
तब से है तुमसे प्यार प्रिये...!

हर रोज़ शाम को मोहल्ले की कंकरीली गलियों में
जब हम कंचे खेला करते थे
और मैं रोज़ जाता था हार प्रिये..!
तब से है तुमसे प्यार प्रिये...!
तब से है तुमसे प्यार प्रिये...!

जब हम फिरकी लट्टुओं की जंग लड़ाया करते थे
और उछालकर हाथ में लेना आ जाए
तो ख़ुशी से इतराया करते थे
उस फिरकी लट्टु की हाथों में गुदगुदी के अहसास के
जैसा था ये प्यार प्रिये..!
तब से है तुमसे प्यार प्रिये...!

जब प्रतियोगिता के नाम पर
हम कक्षा की पढ़ाई छोड़ देते थे
और आवारा से पूरे स्कूल में घूमा करते थे
तब मेरा ये सभ्य मन भी
हो गया था आवारा
तेरे प्यार में प्रिये..!
कि तब से है तुमसे प्यार प्रिये...!   

जब अमरुद की कच्ची शाखों पर
तुम बेखौफी से चढ़ जाती थी
और संतरों को बगीचों से चोरी कर
अपनी नेकर की जेबों को
पूरा उनसे भर लाती थी
तुम्हारी इस बेख़ौफ़ी को मैं बस
रहता था एकटक निहार प्रिये..!
कि तब से है तुमसे प्यार प्रिये...!

जब तीखी गर्मी की तपिश में भी
हम लंगड़ी पाला खेला करते थे
और मूसलाधार बारिश में सराबोर हो
साइकिल से रेस लगाया करते थे
तब मेरे मन की सुर्ख़ भूमि पर भी
आ गई थी प्रेम की बाढ़ प्रिये..!
असीमित हो गया था तुमसे
ये प्यार प्रिये..!

कड़ाके की सर्दी में जब हम
पतंग उड़ाया करते थे
और तुम अपनी अल्हड़ पतंग से
सूरज को छूने की कोशिश करती थी_
तुम थी वो मेरी अल्हड़ पतंग
किन्तु कोई था ना मांझा, ना डोरी, ना ही कोई तार प्रिये..!
था सिर्फ मेरा निश्छल प्यार प्रिये..!
कि तब से है तुमसे प्यार प्रिये...!

जब एक अनाथ शिशु का रुदन सुन
अनायास ही तुम उसकी माँ बन गई
और समाज की दुत्कार को सुन
चुपचाप ही कहीं दूर चली गई
तब ये कायर मन तुमसे कह भी न सका
कि करता हूँ मैं तुमसे प्यार प्रिये..!
कि करता हूँ मैं तुमसे प्यार प्रिये..!

अब_
जीवन की तपाग्नि में तपकर
उम्र की पगडण्डी पर चलकर
यह कहने को
आया हूँ आज तुम्हारे पास_
कि जब तुम इन नन्हें अनाथ बच्चों के संग
किलकारियों सी हँसती हो
तो उसकी ऊर्जा से
मेरे अंतर्मन का इकलौता सूरज_
देदीप्यमान हो जाता है
और उसकी मधुर ध्वनि से शरीर का
कण - कण गुंजायमान हो जाता है
इतना करता हूँ मैं तुमसे प्यार प्रिये..!
कि तुम्हारी चंचलता, निडरता, शौर्य और उत्साह
से है मुझे ये प्यार प्रिये..!
कि करता हूँ मैं तुमसे प्यार प्रिये..!
अधेड़ उम्र के इस अधीर मन का
यह प्रणीत अनुग्रह
अब कर भी लो स्वीकार प्रिये..!
कि कच्ची केरी सा खट्टा और पके आम सा मीठा
है ये तेरा प्यार प्रिये..!


         - iCosmicDust(निकिता पोरवाल)







Saturday 1 July 2017

४००० वर्ष वृद्ध एक वृक्ष से उसकी जीवन वार्ता (भाग-2)



अगले दिन सुबह ७ बजे...
शोधकर्ता वृक्ष के पास पहुँचती है...

शोधकर्ता (वृक्ष से):- सुप्रभात..!वृक्ष महोदय..!

वृक्ष जो कि प्रातः कालीन पक्षियों के कलरव को सुनने में मग्न था.. अचानक शोधकर्ता की आवाज़ सुन और इतनी सुबह उसे जंगल में देख हैरान हो जाता है। फिर शोधकर्ता से कहता है : सुप्रभात..! आप इतनी सुबह ही आ गई। रात भर ठीक से सोई भी है आप या नहीं?

शोधकर्ता:- जी आपकी इतनी रोमांचक कहानी सुनने को उत्सुक जो थी, ऐसा लगा की नींद मुझसे पहले ही जागकर आपके पास आपकी कहानी सुनने आ गई हो..!

वृक्ष:- हा हा हा..! चलिये अच्छी बात है। इस वन के सौंदर्य का भोंर के स्वर्णिम प्रकाश में आनंद उठाइये।
आइये..! (वृक्ष अपनी एक लम्बी, मजबूत, शाखा शोधकर्ता के आगे करता है।)
शोधकर्ता आश्चर्यचकित भाव से एक बार शाखा को और फिर वृक्ष को देखती है..!
वृक्ष:- घबराइये नहीं..! मैं आपको गिराऊँगा नहीं..!
शोधकर्ता:- उसका तो मुझे पूरा विश्वास है, बस आश्चर्यचकित हूँ..! किसी काल्पनिक जीवन को जीने जैसा लग रहा है यह सब..!

तत्पश्चात वह वृक्ष की उस शाखा पर खड़ी हो जाती है, वृक्ष उसे अपनी सर्वोत्कृष्ट शाखा पर बैठाता है और दोनों मिलकर सूर्योदय के पश्चात् का क्षितिज पार तक फैली वन सम्पदा का अत्यंत मनोहारी एवं नयनाभिराम दृश्य दृष्टित करने लगते है..!

कुछ समय पश्चात्...

वृक्ष:- कितना सीमित होकर रह गया है अब हम वृक्षों का जीवन..! हो सकता है कि अगले कुछ ही वर्षों में इस वन का एक भी वृक्ष जीवित न बचे। मनुष्य अपनी उपयोगिता लिये बिना विचार किये उनके टुकड़े - टुकड़े कर देगा। अपनी स्थिरता व स्थूलता के कारण हम तो निर्जीव समान ही है मनुष्य के लिए..! किन्तु वह तो हमारे साथ निवास कर रहे जीव-जंतुओं की भी चिंता नहीं करता। कालचक्र के इस घूर्णन के साथ-साथ मनुष्य इतना स्वार्थी बनता जा रहा है कि उसे स्वयं अपना पतन भी दिखाई नहीं दे रहा।
एक समय यही मनुष्य इस प्रकृति के साथ, हम वृक्षों के साथ, जीव-जंतुओं के साथ सामंजस्य बनाकर रहता था।

शोधकर्ता:- मनुष्य कब से प्रकृति के साथ सामंजस्य से रहने लगा ?  जितना इतिहास में मैंने झांककर देखा है, वह तो सदैव प्रकृति का शोषण ही करता आया है..!

वृक्ष:- जब मेरा वह वन जहाँ मैं अपनी माँ के साथ जीवन व्यतीत कर रहा था, वहाँ ज्वालामुखी फटने से हुई त्रासदी के बाद भूमि में कुछ इस प्रकार परिवर्तन आए कि वह पहले की अपेक्षा और अधिक समतल हो गई।  ज्यादा वृक्ष तो उस पर दोबारा से पल्ल्वित नहीं हो पाए किन्तु उस भूमि पर एक विशेष प्रकार के जीवों का एक छोटा सा समूह आकर बस गया जो कि दुसरे जीवों की चर्म या हम वृक्षों की छालों व पत्तों को जोड़कर उन्हें ओढ़ता था एवं उसकी कल्पना शक्ति अद्भुत थी।
वह समूह उस समतल हुई भूमि की ऊपरी मृदा को थोड़ा ढीला करता, फिर कुछ विशेष प्रकार के पौधों के बीज उसमे डालता, पानी से सींचता और एक समय पश्चात् जब उन पौधों पर कुछ फल लग जाते तो उन्हें काटकर एक सीमित ऊर्जा की अग्नि में पकाकर अपना भोजन करता। साथ में वह अन्य जीव-जंतुओं का शिकार भी करता, किन्तु सिर्फ उसकी आवश्यकता के अनुसार ही।
इसके साथ ही उसकी भाषा भी वन के अन्य प्राणियों की अपेक्षा कुछ भिन्न थी। सम्पूर्ण समूह में केवल चार या पांच लोग ही ऐसे थे जो कि वन के अन्य प्राणियों यहाँ तक कि कुछ सीमा तक हम वृक्षों से भी बात करने में समर्थ थे।

शोधकर्ता:- अच्छा..?!

वृक्ष:- जी हाँ..!और उन्हीं के कारण हमें यह ज्ञात हुआ था कि वे हमारा वृक्षों का, अन्य जीवों का, इस प्रकृति का सम्मान करते थे।
काष्ठ की आवश्यकता उन्हें उस समय भी रहती थी, किन्तु उसके लिए वे हम वृक्षों की शाखाओं को काटते.. मुख्य तना नहीं..! और उसके लिए इस प्रकृति को, हम वृक्षों को धन्यवाद देते व हमारा आदर-सम्मान करते। यही नियम अन्य जीव-जंतुओं के लिए भी लागू होता।  केवल आवश्यकता अनुसार ही शिकार किया जाता व उसके लिए इस प्रकृति का आभार प्रकट किया जाता।

शोधकर्ता:- अरे हाँ..! इस प्रकार के कुछ आदिवासी कबीलों के बारे में पढ़ा है मैंने।

वृक्ष:- जी..! ऐसे ही एक कबीले ने हमारे वन में आश्रय लिया था, जो कि बहुत फला-फूला। इतना कि उस कबीले की छोटी सी बस्ती ने धीरे-धीरे गांव और फिर एक विस्तृत क्षेत्र में फैले समृद्ध राज्य का रूप ले लिया।

शोधकर्ता:- और इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में आपका जंगल बचा या वह मानव के इस सांस्कृतिक विकास की भेंट चढ़ गया ?

वृक्ष:- अधिकांशतः तो बच गया, किन्तु फिर भी वन का काफ़ी भाग इस विकास की भेंट चढ़ा।
एक दृष्टिकोण से देखा जाए तो शायद यहीं-कहीं  से हमारे अस्तित्व का हरण प्रारम्भ हो गया था। क्यूँकि इसके पश्चात प्राकृतिक संसाधनों का दोहन लगातार बढ़ता ही गया; कभी कम नहीं हुआ।

शोधकर्ता:- आपने स्वयं इसका सामना कैसे किया ? कैसे आपका अस्तित्व बच गया इस विकास की बलि चढ़ने से..?

वृक्ष:- वैसे इसके लिये तो मैं आप मनुष्यों का ही धन्यवाद देना चाहूँगा, क्यूंकि मैं तो अचल वृक्ष था उस समय कि अपने बचाव के लिए कुछ कर सकूँ।

शोधकर्ता:- वो कैसे ?

वृक्ष:- जब मनुष्यों का वह समूह वहाँ बसने के लिए आया था।  उस समय उनके समूह के वे लोग जो हमसे बात कर सकते थे, उन्होंने वन के कुछ वृक्षों को किसी भी प्रकार की हानि न पहुंचाने की हिदायत दे दी थी और भाग्यवश मैं भी उन वृक्षों में से एक था। जिन्हें उन्होंने सर्वाधिक आदर-सम्मान दिया था।

शोधकर्ता:- तात्पर्य यह है कि आप उन आदरणीय वृक्षों में से एक बन गए थे उनके लिए..!

वृक्ष:- जी हाँ...! बिल्कुल सही अंदाजा लगाया आपने।

शोधकर्ता:- अर्थात यदि आज आप अपने मूल स्थान से हिले नहीं होते तो किसी शहर के बीच में अपने इस विशालकाय स्वरुप के साथ खड़े होते।

वृक्ष:- अरे नहीं..! मनुष्यों की जिस सभ्यता का स्वर्णिम विकास मेरे चारों ओर हुआ था, उसका पतन भी समयांतर के साथ मेरे नेत्रों के समक्ष ही हुआ।
और उसके बाकी बचे अवशेष भी शनैः-शनैः प्रकृति में विलोपित हो गए।

शोधकर्ता:- ओह..! लेकिन कैसे ?? इतनी विकसित सभ्यता का पतन अचानक किस प्रकार हुआ ?

 वृक्ष:- एक प्राकृतिक आपदा से। मनुष्यों ने अपने ऐश्वर्य और सांस्कृतिक विकास के लिए प्रकृति और वृक्षों का जो दोहन किया, उससे वहाँ की भूमि की पकड़ ढीली हो गई। सक्रिय ज्वालामुखी निकट होने के कारण वहाँ वैसे भी भूकंप आते रहते थे।
ऐसे ही एक दिन इतनी अधिक तीव्रता का भूकंप आया कि सम्पूर्ण साम्राज्य कुछ ही क्षणों में भूमि में विलीन हो गया। सिर्फ कुछ अवशेष ही उसकी उपस्थिति के प्रमाण के लिए बाकी रह गए। बहुत ही विनाशकारी दिवस था वो, जब उन क्षणों के लिये मुझ जैसा विशालकाय वृक्ष भी अस्थिर हो गया था।

शोधकर्ता:- ओह..! तो क्या उस समय से ही आपने वह स्थान त्याग करने का निश्चय किया ? और स्थिर से गतिमान होने की ओर प्रयास प्रारम्भ किये ?

वृक्ष:- हा हा हा..! अरे नहीं..! वह स्थान मेरी मातृभूमि थी, सिर्फ एक भूकंप के झटके से मैं उस स्थान को त्यागने का निर्णय कैसे कर सकता था ?
उसके पश्चात् तो प्रकृति पुनः फली-फूली और उस वन सम्पदा को और भी अधिक सौंदर्य से सम्पूरित कर दिया।

शोधकर्ता:- तो फिर आपके मन में ये स्थिरता से गतिमान होने का विचार कैसे, कब और क्यूँ आया ?

वृक्ष:- जैसा कि मैंने आपको आरम्भ में बताया था, मेरे अंदर जीवन ऊर्जा और उत्साह अन्य वृक्षों की तुलना में कहीं अधिक था और उसी के परिणामस्वरूप मैं इस विशाल काया और लम्बी आयु को प्राप्त कर सका, किन्तु "अति सर्वत्र वर्जयेत" ये कथन तो आपने सुना ही होगा।

शोधकर्ता:- जी हाँ..!!

वृक्ष:- बस इसी जीवन ऊर्जा से मिली लम्बी आयु के कारण मैं उस समय भी जीवित रहा जब मेरा संपूर्ण वन नष्ट हो एक वीरान बंजर में परिवर्तित होने लग गया। मेरी जड़ें भूमि में अधिक गहराई तक धँसी होने के कारण मुझे कभी पोषण की कमी नहीं हुई अपितु बेहतर पोषण के लिए वे और अधिक गहराई में जाती चली गई।
अंततः उस वीरान बंजर भूमि में मैं अकेला वृक्ष बाकी रह गया।  यहाँ तक कि धीरे-धीरे मेरे ऊपर निवास कर रहे प्राणियों के निकुंज भी वीरान हो गए।
बस यही क्षण था जब मैंने भी प्रथम बार अपने जीवन से मुक्ति की बात सोची थी।

शोधकर्ता:- ओह..!!

वृक्ष:- जी हाँ..! मेरे हृदय में स्थिरता से गतिमान का विचार सिर्फ इस हेय से आया था कि मैं अपने जीवन की इति कर सकूँ।
और आप विश्वास नहीं करेगी उसके पश्चात एक लम्बे समय तक मैंने इसी के लिए कोशिश की।

शोधकर्ता:- मुझे ज्ञात ही नहीं था कि एक वृक्ष भी निराशावादी हो सकता है।
तो फिर आपकी इस निराशा को पुनः आशा के पंख किस प्रकार मिले ? मेरा तात्पर्य है कि आपने कब इस निराशावादी विचार को अपने हृदय से निकाल स्वयं को पुनः जीवन ऊर्जा से भर लिया ??

वृक्ष:- अपने जीवन की इति करने के लिए मैं शनैः-शनैः अपनी जड़ों को भूमि की गहराइयों से ऊपर लाने की कोशिश करने लगा। एक लम्बी समयावधि व्यतीत होने के पश्चात् मुझे ज्ञात हुआ कि मैं तो उस स्थान पर हूँ ही नहीं जहाँ मैं हुआ करता था। मैं स्वयं की इति श्री में ही इतना तल्लीन था कि मैंने गौर ही नहीं किया कि कब मैं उस बंजर भूमि से निकलकर एक नवीन वन में आ पंहुचा था। मैं उस जंगल के किनारे पर खड़ा था जिसके पास मनुष्यों का एक विशाल शहर बसता था और जब अपने आस-पास के साथी वृक्षों से बात की तब पता लगा कि वे सभी वृक्ष मुझे यात्री वृक्ष के नाम से पुकारते थे, जो कि एक लम्बे समय से यात्रा कर रहा है।

शोधकर्ता:- एक यात्री वृक्ष..! बहुत ही अद्भुत नाम है।

वृक्ष:- जी हाँ..! और बस इस नामकरण के पश्चात् ही मैं कभी रुका नहीं। जीवन जीने का एक नया ध्येय मिल चूका था मुझे अब। और सदैव अपनी काया को और अधिक चलायमान करने की कोशिश करता रहा। प्रकृति की भाषा तो ज्ञात थी ही, किन्तु इसके साथ ही मनुष्यों की भाषाएँ भी सीखी। उनकी कितनी ही संस्कृतियों के उत्थान और पतन देखे। और प्रतिदिन कुछ नवीन सीखता रहा और अपने जीवन को रोमाँचों से परिपूर्ण करता रहा

शोधकर्ता:- ये मेरा सौभाग्य है कि मुझे आपसे मिलने एवं बात-चित करने का अवसर प्राप्त हुआ। वास्तविक रूप में देखा जाए तो आप अपने अंदर एक सम्पूर्ण इतिहास को संजोए हुए है। कोशिश यही करूंगी कि आपसे मुलाकातों का ये सिलसिला जारी रहे और मैं जीवन और इतिहास से सम्बंधित कई उपयोगी बातें आपसे जान पाऊँ।

वृक्ष:- जी बिलकुल..! तब तक के लिए शुभ रात्रि..!

शोधकर्ता:- जी धन्यवाद..! शुभ रात्रि..!!