Thursday 3 December 2015

डायरी नं. १३, पेज ६४, लेख़ ४३, पतझड़ की पूरे चाँद की रात से एक दिन पूर्व...!


     आज़ भी वह आई.. हर रोज़ की तरह..। और आकर वहीं उसी बड़ी सी पत्थर पर बैठ गई, जिस पर वह हर रोज़ बैठा करती और एकटक नदी को, उसकी लहरों को, उस बहते पानी को और उसके दूसरी तरफ बसे घने जंगल को निहारा करती एवं साथ ही एक गहरी सोच में डूबी रहती..। 
      आज़ भी वह अपने साथ अपनी डायरी और पेन लाई  थी, किन्तु पिछले एक वर्ष में शायद ही कभी-कभार ऐसा हुआ हो जब मैंने उसे उसमें कुछ लिखते हुए देखा हो..। बाकी समय तो वह बस किसी गुमनामी सी सोच में ही डूबी रहती..। 
     जब वह पहली बार यहाँ आई थी, तो मुझे लगा कि दूसरे शहरी लोगों की तरह वह भी ऐसे ही रास्ता भटकते हुए आ गई होगी। लेकिन.. उसके बाद वह रोज़ आने लगी, एक नियम की तरह..। पहले मैं भी ज्यादा ध्यान नहीं देता था, कि वह आई.. आकर कुछ समय के लिए बैठी और चली गई.. । लेकिन, धीरे - धीरे मुझे जैसे उसकी आदत सी ही बन गई। 
     वह आती तो हर रोज़ थी, किन्तु उसका समय निश्चित नहीं था। कभी वह शाम को सूर्यास्त से थोड़ा पूर्व आती, तो कभी दोपहर में ही आ जाती और किसी - किसी दिन तो भोंर की लालिमा के साथ ही उसकी झलक मिल जाती। एक समय के बाद मैं हर रोज़ उसका इंतज़ार करने लगा; कभी - कभी जब वह सूर्यास्त तक भी नही आती तो मुझे चिंता होने लगती, एक बैचेनी सी होने लगती कि क्यों नहीं आई वो आज..? और.. इसी बैचेनी के बीच वह आते हुए दिख जाती..। मेरा मन करता की जाऊँ उसके पास और जाकर खूब चिल्लाऊँ की आज इतना देरी से क्यों आई? पता नही तुमको की मैं कब से तुम्हारा इंतज़ार कर रहा था..? लेकिन कभी उसके पास जाने की हिम्मत नही जुटा पाया और ना ही कभी कुछ कह पाया..। बस.. दूर से ही.. यहाँ अपनी कोचर से निहारता रहता उसे..। 
     जिस तरह वह इस बहती नदी को, उसके अंदर तैरती मछलियों को, नदी के पार फैले इस विशाल वन को, उसके पेड़ों को, उन पैर बैठे पशु - पक्षियों को, और नीचे झाड़ियों में लुका - छुपी करते खरगोशों आदि को एकटक दृष्टि से निहारती.. तो ऐसा लगता मानों वह यह सब - कुछ अपने अंतर तक भर लेना चाहती हो.. इतना कि शहर में रहकर भी वह जैसे इस जंगल के बीच रह सके..। 
     प्रतिदिन वह इस विशाल, विस्तृत वन - श्रृंखला को इसी प्रकार एकटक दृष्टि से निहारती रहती और मैं उसे.. और वह भी उसकी पूरी अनभिज्ञता के साथ..।  शीतल समीर के मंद - मंद झोंके जब उसके लम्बे, घने, लहराते केशों के साथ क्रीड़ा करते और तभी उनमे से कुछ केश बार - बार उड़ - उड़ कर उसके चेहरे पर आ जाते, जिन्हें वह कान के पीछे करती रहती और इसी बीच जंगल की अठखेलियों को निहारते हुए उसके मुख पर जो मुस्कान बिखर जाती...! इतना मनोरम दृश्य तो शायद इस प्रकृति का भी नही रहा होगा। 
     आज भी ऐसी ही मनमोहक मुस्कान उसके चेहरे पर बिखरी पड़ी है और कुछ समय तक प्रकृति के इस अंश को दृष्टित करने बाद वह अपनी डायरी में कुछ लिखने में तल्लीन हो गई है। किन्तु, आज़ मैं उसे दूर से नहीं निहार रहा, अपितु उसकी बगल में बैठा हूँ। आज़ मैं हिम्मत करके पहले ही उड़कर, उस पत्थर के पास आकर बैठ गया था, जिस पर वह हर रोज़ बैठा करती..।  जब उसने मुझे यहाँ देखा तो पहले अचम्भित हुई और फिर मुस्कुराई, उसके पश्चात् अपनी बगल में बैठने का इशारा करके वहाँ बैठा लिया। 
     जब झाँककर देखा कि वह क्या लिखने में इतना व्यस्त थी, तो देखकर स्तब्ध रह गया की वह तो मेरी ही कहानी लिख रही थी..। 
                                                                                                               

 - अवाक्, स्तब्ध एवं अचम्भित 
                                                                                                                      उल्लू (जंगल का पहरेदार )     

   

No comments:

Post a Comment