Saturday 19 December 2015

Poetry


कोनों में छुपने में माहिर थे हम_
कि तभी कम्बख़्त ग्रेविटी ने दुनिया गोल बना दी..
और हम वो कोना ढूँढ़ते रह गए_
जहाँ हमनें ज़िन्दगी को छुपाया था_ _!

Wednesday 16 December 2015

४००० वर्ष वृद्ध एक वृक्ष से उसकी जीवन वार्ता (भाग-१)

Prologue..
Once upon a time.. more than 4000 years old tree, who was growing up all the time, got frustrated from his extra long life and solicity, so he wanted to kill himself but didn't know how to do it..!
He was so desperate about killing himself that he tried so many things and tricks. Almost more than 100 years after of his trying for moving his body i.e. branches and roots, he actually became a mobile tree.. but eventually he travelled approx quarter of earth without knowing and realizing it.
The moment he realized about his mobile body, he skip the plan of killing himself and made a plan for completing his journey on this earth.
It took him more than 200 years for completing the journey and now he became the first tree who travelled the earth and experienced a lot of things that no other tree ever had.
And when he is going to complete his another short journey to his favourite jungle, a researcher found out about him, about his walking, his talking and his journey. She has been performing her research on the most oldest trees of this world. When she found out about this mobile tree somehow she succeeded to take an interview with him.

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शोधकर्ता (वृक्ष से ):-  नमस्ते..!

वृक्ष (शोधकर्ता से ):- नमस्ते.. नमस्ते.. !! आप बैठिये न.. आराम से.._

शोधकर्ता:- हाँ.. हाँ.. क्यों नहीं..!

 वृक्ष (शोधकर्ता से ):- तो आ ही गई आप..! पता नहीं आपको मेरे बारे में कैसे पता चल गया..?मैंने तो पूरी सावधानी और सतर्कता बरती थी कि किसी को भी पता नहीं चले..।

शोधकर्ता (वृक्ष से ):- हाँ.. आपकी कोशिश तो पूरी थी किन्तु मैं भी एक शोधकर्ता हूँ और आप जैसे वृद्ध वृक्षों पर ही शोध कर रही हूँ.. और अगर इसी बीच मुझे ये भी पता न चले की आप हम मनुष्यों की तरह ही चल-फिर सकते हैं.._ बातें कर सकते है.._तो ज़रूर मैं अपना शोधकार्य पूरी लगन के साथ नही कर रही.._ मैं यही मानूंगी। और आउंगी क्यों नहीं...? अपने वादे और इरादे की पक्की हूँ।

 वृक्ष (शोधकर्ता से ):- हाहाहा.._! हाँ यह तो अच्छी बात है..।

 शोधकर्ता (वृक्ष से ):- तो चलिये शुरू करें...?

 वृक्ष:- शुरू?

शोधकर्ता:- हाँ..! मैं यह सब जानने के लिए बेहद उत्सुक हूँ कि आखिर आपने ये सुपर पावर्स कहाँ से या कैसे प्राप्त की? एक वृक्ष होने के उपरांत भी आप चल सकते है, यात्राएँ कर रहे है, बातें कर सकते है..!और आपके सम्पूर्ण जीवन की कहानी..।

वृक्ष:- कहाँ से प्रारम्भ करूँ...? जिन सुपर पावर्स की बात आप कर रही हैं उन्हें लेकर तो मैं स्वयं आज़ तक अचंभित हूँ..! और मेरा जीवन.._ एक संपूर्ण इतिहास समाविष्ट है उसके अंदर.._।

शोधकर्ता:- तो क्यों न शुरूआत से ही शुरू करें..? मेरा तात्पर्य है-आपके जन्म के समय से..? अगर आपकी कुछ यादें हो उस समय की आपके पास..? वैसे तो सहस्त्रों वर्षों का अंतराल व्यतीत हो चूका है तब से अब तक..!

वृक्ष:- जन्म की यादें..! हाँ.. हाँ.. क्यूँ नहीं..! माना की मैं सहस्त्रों वर्ष वृद्ध एक वृक्ष हूँ, किन्तु मेरे सम्पूर्ण जीवन की स्मृतियाँ आज भी बिलकुल तरुण है। और उन्हीं के बल और उनसे प्राप्त अनुभवों से ही तो मैं आज भी अपना जीवन एक संतोष और आनंद के साथ व्यतीत कर रहा हूँ।

शोधकर्ता:-  अरे वाह...! तो फिर बताइये न.. आपके जन्म के समय की, आपके बचपन की..  मेरा तात्पर्य है जब  आप एक नन्हें से पौधे से इस विशाल वृक्ष में रूपांतरित हो रहे थे.. उस समय की कुछ ऱोचक घटनाएँ, कुछ ऱोचक कहानियाँ..।

वृक्ष:- मुझे आज़ भी याद है वह दिन.._ जब मैंने इस पृथ्वी की कोमल मृदा में से पहली बार अपना मुख बाहर निकाला था.._इतना तेज़ प्रकाश था चारों ओर कि आँखें ही चौंधिया गई हो।
एक नन्हीं सी कोपल समरूप ही तो था उस वक़्त मैं.._ जो कि भोंर के स्वर्णिम प्रकाश को भी नहीं सह पाया था।
फिर ऐसा लगा कि जैसे मेरी माँ ने मुझे देख लिया हो और अपने कुछ पत्ते मेरे ऊपर गिरा दिए हो..।  उसके बाद उन पत्तों के बीच में धीरे-धीरे अपनी चौंधियाई आँखों को खोला और उन पत्तों से बाहर देखा.._ तो दिखा कि दूर क्षितिज पार एक रक्तिम वर्ण का विशाल गोला अपने पूरे तेज़ के साथ ऊपर की ओर खुले नीले आकाश में गतिमान हो रहा है.. और तभी यह अहसास भी हुआ कि अब वह प्रकाश मेरे नेत्रों में नही चुभ रहा..। फिर और नज़रें ऊँची की तो अपनी माँ को देखा_ तो पता लगा कि वह तो टुकटुकी लगाए मुझे ही देख रही थी और अपनी सम्पूर्ण ममता के साथ मुस्कुरा रही थी..।बहुत ही सुन्दर और विशालकाय वृक्ष थी वह_ _।

शोधकर्ता:- लेकिन आप यह कैसे कह सकते है कि वह आपकी माँ थी..? मेरे कहने का तात्पर्य है कि पेड़ - पौधों का जन्म तो जिन बीजों से होता है वे तो पक्षियों द्वारा अथवा किसी अन्य संसाधनों  के द्वारा एक विस्तृत क्षेत्र में बिखर जाते है..।

वृक्ष:- हाँ बिलकुल.. किन्तु क्या उस वृक्ष के बीज़ सर्वाधिक मात्रा में स्वयं उसी के नीचे नहीं गिरते ?
बहुत ही भाग्यशाली होते है वें वृक्ष जो अपने माता या पिता के संरक्षण अथवा छत्रछाया में पल्लवित होते है.._।

शोधकर्ता:- और आप उन्हीं  वृक्षों में से एक थे..!

वृक्ष:- जी बिलकुल सही..!  ममतामयी माँ के संरक्षण में मैं खूब तेज़ी से पल्लवित होने लगा..। सूर्य का प्रकाश मेरे अंतर तक असीम ऊर्ज़ा प्रवाहित कर देता और एक विशालकाय बहती नदी पास ही में होने के कारण मेरी जड़ों को कभी भी जल की कमीं महसूस नहीं हुई_ _। इस प्रकार मेरे शरीर को पर्याप्त जीवन ऊर्ज़ा मिलने लगी और मैं जीवन आनंद में लिप्त तेज़ी से फलने-फूलने लगा..।
कुछ ही वर्षों के अंतराल की बात है_ _ जब मैं इतना  पल्लवित हो गया कि पक्षी मुझ पर अपने घरौंदे बनाने लगे..! गिलहरियाँ अन्य छोटे-छोटे जीव-जंतु मेरे उपर आकर मेरी इन्हीं शाखाओं पर अठखेलियाँ करने लगे_। और पूरे शरीर में अजीब सी सिहरन तो तब दौड़ गई थी जब पहली बार एक साँप मेरे ऊपर रेंगता हुआ चढ़ रहा था_ _।

शोधकर्ता:- हाहाहा..!  अरे वाह..!  आपको अभी तक इतना भी याद है..?

वृक्ष:- हाँ-हाँ_ _ क्यों नहीं..? यह तो क्या.. मुझे तो वह पहली चिड़िया भी याद है, जिसने पहली बार मेरे ऊपर अपना घर, एक नन्हा सा घोंसला बनाया था.._  बहुत ही कोमल और सौम्य स्मृति है उस नन्हीं खूबसूरत सी नीली चिड़िया की.._।

(वृक्ष कुछ समय के लिए अपनी यादों में खो जाता है...)

कुछ समय पश्चात्...

उसके बाद बस इसी प्रकार मैं बढ़ने लगा.._ आकाश की ऊंचाइयों को छूने लगा_ _। मेरी शाखाएँ फैलती गई_ _ मेरी जड़ें और गहरी होती गई_ _ इन सभी के बीच विभिन्न जातियों-प्रजातियों  जीव-जंतु, पशु-पक्षी व उनके परिवार मेरे ऊपर पल्लवित होने लगे_। यह सब जैसे मुझे अपना ही एक विस्तृत परिवार लगने लगा..।
और एक दिन जब अचानक देखा तो ऊँचाई में, फैलाव में आदि सभी प्रकार से मैं बिलकुल अपनी माँ के बराबर आ गया था..।

शोधकर्ता:- आपकी माँ_ _! बहुत ख़ुश हुई होगी आपको इस तरह फलता-फ़ूलता देखकर..?.. !

वृक्ष:- हाँ... सो तो है.._ उसके इतने सहस्त्रों पुत्र-पुत्रियों में से एक मैं ही था, जो कि उसके इतना करीब भी था और  उतना ही स्वस्थ रूप से फल-फूल भी रहा था.._ तो उसकी ख़ुशी का तो जैसे ठिकाना ही नहीं रहता था_ _। हम दोनों खूब बातें करते..! एक-दूसरे के ऊपर पल्लवित हो रहे जीव-जंतुओं व पशु-पक्षियों की किस्से-कहानियाँ एक-दूसरे को बताते रहते..! अपने जीवन के विभिन्न प्रकार के अनुभव वह मुझे बताती रहती..! उसके साथ ही प्रतिदिन भविष्य की नवीन योजनाऍ बनाते रहते...! मेरे अन्य छोटे भाइयों व बहनों को जन्म लेते एवं पल्लवित होते देखते...! फिर उनमें से कुछ की किसी ना किसी कारणवश असमय ही मृत्यु हो जाती_ _ तो एक उदासी सी छा जाती...दोनों के चेहरों पर_ _।

शोधकर्ता:-  आकस्मिक मृत्यु?

वृक्ष:- हाँ..! वन का जीवन इतना भी आसान नहीं होता..। मेरे भाई-बहनों में से कुछ, जब वे नन्हें पौधे ही रहते तो किसी न किसी शाकाहारी पशु का ग्रास बन जाते, तो कोई दीमकों या इस इस प्रकार के अन्य कीटों का शिकार हो जाते, और इस प्रकार की विभिन्न आपदाओं के कारणवश उनमें से अधिकांश ज्यादा समय तक जीवित ही नहीं रह पाए..।

शोधकर्ता:- तो आपने इस प्रकार की आपदाओं का सामना किस प्रकार किया?

वृक्ष:- मैं.._! पता नहीं..! बस किसी प्रकार वो साहस और आत्मबल मिल जाता था_ _ इस प्रकार की आपदाओं से सामना करने का.._! शायद जन्म से ही मेरे अंदर जीवन ऊर्ज़ा अन्य की अपेक्षा आवश्यकता से अधिक थी, जो कि मेरे आत्मबल, आत्मविश्वास,जीवन जीने की उमंग के साथ-साथ दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही गई..! और इसी कारण, इस प्रकार की आपदाओं का बिना किसी रुकावट मैं आसानी से सामना करता गया..।

शोधकर्ता:- जीवन ऊर्ज़ा की तो मुझे आज भी आपके अंदर दिखाई  नहीं देती..! इतने सहस्त्रों वर्षों की उम्र के पश्चात् आज़ भी आपके अंदर जीवन उमंग किसी तरुण वृक्ष से कम नहीं है..!

वृक्ष:- हाहाहा...! हाँ.. किन्तु आवश्यकता से अधिक प्रत्येक वस्तु विष का ही कार्य करती है... चाहे वह जीवन ऊर्ज़ा ही क्यूँ न हो..।

शोधकर्ता:- वो कैसे?

वृक्ष:-   जैसा कि मैंने आपको पहले बताया था.._ अपनी असीमित जीवन उमंग और जीवन ऊर्ज़ा के कारण मैं बढ़ता ही गया_ _ फलता-फूलता गया...। एक समय के पश्चात् मैं अपनी माँ से भी कहीं अधिक विशाल भीमकाय वृक्ष में परिवर्तित हो गया..।
इस समय तक मैं लगभग २०० वर्षों से भी अधिक उम्र का हो चुका था..।
और इसी समय अंतराल में प्राकृतिक पर्यावरण में इतने अधिक बदलाव आ गए कि वह वन, जिसके काफ़ी अंतर में मैं खड़ा था, धीरे-धीरे नष्ट होने लगा..।
सुनने में आया कि कहीं दूर कोई ज्वालामुखी फटा था, जिसके अंदर से निकले लावा से एक विशाल मात्रा में वन सम्पदा जलकर नष्ट हो गई थी।
हाँ.. उस वक़्त मैंने भी अपने जीवन में प्रथम बार इस स्थिर धरा को काँपते हुए महसूस  किया था, जैसे की वह टुकड़ों में टूट रही हो..! लेकिन थोड़े से ही कम्पन के बाद वह शांत हो गई थी..। और मैंने भयभीत होकर उसे और अधिक मजबूती से अपनी जड़ों से जकड़  लिया था..।
खैर.. उसके बाद वो ज्वालामुखी दोबारा कभी नहीं फटा और वन भी दोबारा फला-फूला, किन्तु, पहले की तरह नहीं फल-फूल पाया वह दोबारा.._ _।
वह नदी, जो मेरे पास से बहती थी.. सुखकर और सिकुड़कर झील बन गई थी.. उस लावे की ऊष्णता से..। वह झील से दोबारा कभी नदी नही बन पाई_ _ एक मुख्य जीवन स्त्रोत थी वह उस वन सम्पदा की..।
और इन सभी के साथ ही मेरे ऊपर रहने वाले पशु-पक्षियों की संख्या भी आधी से भी काम रह गई..।

शोधकर्ता:- और आप एवं आपकी माँ इस बड़ी आपदा का भी सामना कर अटल खड़े रहे..!..?

वृक्ष:- नहीं..! मेरी माँ भी बहुत अधिक समय तक इस आपदा का सामना नहीं कर पाई..! धीरे-धीरे वह सूखने लगी_ उस पर नई कोपलें आना बंद हो गई_ फल-फूल भी नहीं खिलने लगे_ उसकी जड़ों की पकड़ भी दिन-ब-दिन ढीली होती गई_ _।
सर्वाधिक दुःखदायी दिवस था वह मेरे जीवन का_ जिस दिन मेरी माँ सम्पूर्णतः एक सूखे निर्जीव वृक्ष में परिवर्तित होकर ज़मींन पर धराशायी हो गई थी..।

(और इसी के साथ वृक्ष की आँखों से अश्रुओं की धारा बहने लगती है_ _)

कुछ समय पश्चात्...

वृक्ष:- क्षमा करना_ मैं आपको आज़ इससे अधिक कुछ भी बताने में असमर्थ हूँ.. ।  यदि आपको कोई परेशानी न हो तो आप कल सुबह आ जाइये..।
शोधकर्ता:- जी क्षमा मांगने की कोई आवश्यकता नहीं_ _ मैं कल सुबह आ जाऊँगी और वैसे भी काफ़ी देर हो गई.. रात गहराती जा रही है..। शुभ रात्रि..!

वृक्ष:- जी.. शुभ रात्रि..!

       
     

Saturday 12 December 2015

मेरा एक सहस्त्रवाँ जन्मदिवस...!


यह नील हरित समुद्र_ _, कितना मनोहारी एवं अद्वितीय दृष्टित होता है पूर्णिमा की रात्रि में इसका यह रूप_ और इसकी हर पल अविरत गति से क्रीड़ा करती ये लहरें_ _ कभी न ख़त्म होने वाले जोश और उत्साह का प्रतिरूप_ _, जिनके ऊपर चाँद भी आकाश के कोटि ताराक्रमों  साथ अठखेलियाँ करता प्रतीत होता है, मानों लहरों के इस नटखटपन और उत्साह को देखकर वह भी गगन से उतरकर उनके साथ अपने जीवन का ज़श्न मनाने आ गया हो। सहस्त्रों वर्षो का एक नयनाभिराम दृश्य.....।
सम्पूर्ण पृथ्वी बदल गयी, अगर कुछ नहीं बदला, तो वह है यह दृश्य...., वही दृश्य.. जिसे मैंने सहस्त्र वर्ष पहले अपने जीवन में प्रथम बार नेत्र खोलते ही देखा था और तभी से मैं इस प्रकृति का कायल हो गया था।
मेरे जन्म को सहस्त्र वर्ष बीत गये_ _, पता ही नहीं  चला_ _, ऐसा लग  रहा है मानों आज़ ही तो पैदा हुआ हूँ मैं_ _। हाँ यदि अंतर है तो सिर्फ इतना की उस समय मैं हथेली  अंगूठे जितना छोटा था और आज़ एक विशालकाय पाषाण समरूप हूँ।
इस नश्वर काया का आकार तो बढ़ गया, किन्तु बुद्धि_?  ज्ञान_? मानसिक विकास की ये महत्वपूर्ण कड़ियाँ तो लगता है आज भी वही है। इतने वर्षों से इस पृथ्वी का दर्शन करता रहा हूँ किन्तु आज़ भी मेरे लिये यह उतनी ही अनभिज्ञ है जितनी मेरे जन्म के समय मेरे लिये थी। और कोई जान भी कैसे  सकता है इसके बारे में...? हर पल, हर क्षण तो यह एक नवीन स्वरुप में प्रस्फुटित होती है।
इस अद्भुत जीवंत ग्रह पर ना जानें कितनी ही यात्राएँ मैंने की, अनगिनत जीव-जंतुओं, पशु-पक्षियों से भेंट की, मैत्री की, उनसे जीवन के मूल्यों के बारे में जाना, मनुष्यों के निरंतर परिवर्तित सांस्कृतिक, सामाजिक और वैज्ञानिक परिवेश का दर्शन करता रहा_ _ और इन्हीं सभी के मध्य मेरा जीवन अथाह मनोरंजन एवं खट्टे-मीठे अनुभवों को अनगिनत यादों में परिवर्तित कर गतिमान होता रहा_, ठीक इसी लहराते जलधि की तरह, जिसके अंदर जितना अधिक गहराई में उतरते जाओ,  उतने ही विपुल और नित्य नवीन शब्द और उनके विस्मित कर देने वाले अर्थ स्वतः ही आपके समक्ष उपस्थित होते जाते है_, वैसे ही हर रात एक नवीन याद अपनी गहराई के अनुसार एक अलग ही कहानी कह जाती है और मुझे असीमित आनंद की गहराइयों में डुबोती चली जाती है_ _ और जैसे ही मैं उनकी तह छूने को होता हूँ, भोंर की धुंधली सी धूप गुनगुनाते हुए आती है और मेरा हाथ पकड़कर मुझे बाहर  खींच लाती है_ _ और हर रात एक अधूरी याद बनकर रह जाती है।

                                                                                                      -   वृद्ध  सहस्त्र वर्षों का बालक कच्छप...!






Saturday 5 December 2015

Poetry


तेरी यादों में डूबा हूँ कुछ इस तरह_
कि_ न वक़्त का_ न ही खुद का होंश रहा_ _
ख़ामोशी का समंदर भी
मुझे ऊपर की ओर धकेलता रहा_
और मैं उतनी ही गहराइयों में डूबता रहा_ _

तप गयी मेरी रूह_ तेरे इश्क़ में कुछ इस तरह_
सीपी में मोती पकता है जिस तरह_ _!


Thursday 3 December 2015

डायरी नं. १३, पेज ६४, लेख़ ४३, पतझड़ की पूरे चाँद की रात से एक दिन पूर्व...!


     आज़ भी वह आई.. हर रोज़ की तरह..। और आकर वहीं उसी बड़ी सी पत्थर पर बैठ गई, जिस पर वह हर रोज़ बैठा करती और एकटक नदी को, उसकी लहरों को, उस बहते पानी को और उसके दूसरी तरफ बसे घने जंगल को निहारा करती एवं साथ ही एक गहरी सोच में डूबी रहती..। 
      आज़ भी वह अपने साथ अपनी डायरी और पेन लाई  थी, किन्तु पिछले एक वर्ष में शायद ही कभी-कभार ऐसा हुआ हो जब मैंने उसे उसमें कुछ लिखते हुए देखा हो..। बाकी समय तो वह बस किसी गुमनामी सी सोच में ही डूबी रहती..। 
     जब वह पहली बार यहाँ आई थी, तो मुझे लगा कि दूसरे शहरी लोगों की तरह वह भी ऐसे ही रास्ता भटकते हुए आ गई होगी। लेकिन.. उसके बाद वह रोज़ आने लगी, एक नियम की तरह..। पहले मैं भी ज्यादा ध्यान नहीं देता था, कि वह आई.. आकर कुछ समय के लिए बैठी और चली गई.. । लेकिन, धीरे - धीरे मुझे जैसे उसकी आदत सी ही बन गई। 
     वह आती तो हर रोज़ थी, किन्तु उसका समय निश्चित नहीं था। कभी वह शाम को सूर्यास्त से थोड़ा पूर्व आती, तो कभी दोपहर में ही आ जाती और किसी - किसी दिन तो भोंर की लालिमा के साथ ही उसकी झलक मिल जाती। एक समय के बाद मैं हर रोज़ उसका इंतज़ार करने लगा; कभी - कभी जब वह सूर्यास्त तक भी नही आती तो मुझे चिंता होने लगती, एक बैचेनी सी होने लगती कि क्यों नहीं आई वो आज..? और.. इसी बैचेनी के बीच वह आते हुए दिख जाती..। मेरा मन करता की जाऊँ उसके पास और जाकर खूब चिल्लाऊँ की आज इतना देरी से क्यों आई? पता नही तुमको की मैं कब से तुम्हारा इंतज़ार कर रहा था..? लेकिन कभी उसके पास जाने की हिम्मत नही जुटा पाया और ना ही कभी कुछ कह पाया..। बस.. दूर से ही.. यहाँ अपनी कोचर से निहारता रहता उसे..। 
     जिस तरह वह इस बहती नदी को, उसके अंदर तैरती मछलियों को, नदी के पार फैले इस विशाल वन को, उसके पेड़ों को, उन पैर बैठे पशु - पक्षियों को, और नीचे झाड़ियों में लुका - छुपी करते खरगोशों आदि को एकटक दृष्टि से निहारती.. तो ऐसा लगता मानों वह यह सब - कुछ अपने अंतर तक भर लेना चाहती हो.. इतना कि शहर में रहकर भी वह जैसे इस जंगल के बीच रह सके..। 
     प्रतिदिन वह इस विशाल, विस्तृत वन - श्रृंखला को इसी प्रकार एकटक दृष्टि से निहारती रहती और मैं उसे.. और वह भी उसकी पूरी अनभिज्ञता के साथ..।  शीतल समीर के मंद - मंद झोंके जब उसके लम्बे, घने, लहराते केशों के साथ क्रीड़ा करते और तभी उनमे से कुछ केश बार - बार उड़ - उड़ कर उसके चेहरे पर आ जाते, जिन्हें वह कान के पीछे करती रहती और इसी बीच जंगल की अठखेलियों को निहारते हुए उसके मुख पर जो मुस्कान बिखर जाती...! इतना मनोरम दृश्य तो शायद इस प्रकृति का भी नही रहा होगा। 
     आज भी ऐसी ही मनमोहक मुस्कान उसके चेहरे पर बिखरी पड़ी है और कुछ समय तक प्रकृति के इस अंश को दृष्टित करने बाद वह अपनी डायरी में कुछ लिखने में तल्लीन हो गई है। किन्तु, आज़ मैं उसे दूर से नहीं निहार रहा, अपितु उसकी बगल में बैठा हूँ। आज़ मैं हिम्मत करके पहले ही उड़कर, उस पत्थर के पास आकर बैठ गया था, जिस पर वह हर रोज़ बैठा करती..।  जब उसने मुझे यहाँ देखा तो पहले अचम्भित हुई और फिर मुस्कुराई, उसके पश्चात् अपनी बगल में बैठने का इशारा करके वहाँ बैठा लिया। 
     जब झाँककर देखा कि वह क्या लिखने में इतना व्यस्त थी, तो देखकर स्तब्ध रह गया की वह तो मेरी ही कहानी लिख रही थी..। 
                                                                                                               

 - अवाक्, स्तब्ध एवं अचम्भित 
                                                                                                                      उल्लू (जंगल का पहरेदार )