Monday 30 November 2015

ख़्वाब


आज़ फ़िर मैंने मैंने एक  ख़्वाब देखा_ _
दूसरों की ही तरह वह भी आया
और आकर मेरी तन्हाइयों का दरवाजा खटखटाया_
खामोशियों के परदों से झाँका और मुस्कुराया_
फ़िर चंद लम्हों की अपनी मुस्कान बिखेरकर वह वापस चला गया_ _
रुका नहीं _ _
देख लिया था उसने कि
अंतर में ना जानें कितने ही ख़्वाब सोये हुए है_
कुछ अधजगे है_
और एक है_  जो जागा हुआ है
और दूसरों को जगाने की नाकाम कोशिश में जुटा है_ _ _


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