Friday 27 November 2015

अन्तिम पृष्ठ...


     एक डॉयरी  के कुछ पृष्ठ एक धागे से बंधे चुपचाप औंधे मुँह गहरी निद्रा में सो रहे थे ।  उन पर बिखरीं समानांतर रेखाएँ भी ऊँघ रही थी, कुछ सुस्ता रही थी और कुछ एकटक कहीं किसी उम्मींद में दृष्टि लगाए बैठी थी ।  वह डॉयरी खिड़की के किनारे एक टेबल पर रखी थी ।  जब कभी खिड़की खुलती तो हवा का एक झोंका जल्दी से दौड़कर अंदर आ जाता, जिससे उस डॉयरी के कुछ पृष्ठ मस्ती में लहराने लगते और उनके अंदर बिखरी रेखाओं में उस शीतल समीर की सिहरन अंदर तक दौड़ जाती और कुछ समय पश्चात् पुनः सुस्ताकर वह डॉयरी सो जाती और उसकी रेखाएँ ऊँघने लगती ।  

     तभी अचानक_ _ एक दिन आहिस्ता - आहिस्ता वह डॉयरी खुली और उसके पृष्ठों पर उसी तरह बिखरी उन समानांतर रेखाओं पर अक्षरों, शब्दों और वाक्यों की बौछार होने लगी ।  वें रेखाएँ उनके साथ मस्ती करने लगी, कुछ उनमें भींगने लगी और दूसरी को भिगोने लगी, कुछ उनसे बातें करने लगी और इस तरह उस डॉयरी के प्रत्येक पृष्ठ की रेखाएँ उस बौछार में अंतर तक भीग गई । 

     केवल अन्तिम पृष्ठ सूखा रह गया । वहाँ वृष्टि नही हुई ।  वह ताँकता रहा दूसरे पृष्ठों को, उन्हें देखकर ख़ुश होता रहा और अपनी बारी का इंतज़ार करने लगा ।  किन्तु उसकी बारी नही आई, बारिश थम गई_ _ वह केवल प्रतीक्षा ही करता रह गया ।  आज भी वह अपनी बारी की प्रतीक्षा में बैठा - बैठा ऊँघ रहा है और उसकी कुछ रेखाएँ सुस्ता रही है, तो  कुछ अपनी सीमाएँ तोड़ आपस में ही मस्ती करने लगी है _ _ _!



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