Tuesday 20 June 2017

"बंधन" एक आदत



क्षितिज पार होता सूर्यास्त, गुलाबी-नारंगी से लेकर हल्के जामुनी रंग में विस्तृत आकाश, और उस आकाश में विभिन्न प्रकार की आकृतियाँ बनाते घर लौट रहे पक्षियों के समूह. . ! एक नयनाभिराम दृश्य ..! और इसी अदभुत दृश्य के मध्य विशालकाय, पर्वतरुपी चट्टान से टकराती उन्मुक्त समुद्र की ये लहरें..! ऐसा प्रतीत होता है मानो इस विशालकाय चट्टान ने समुद्र की इस उन्मुक्तता को बाँध दिया हो और उसकी लहरें बार-बार चट्टान से टकराकर उसे वहाँ से हट जाने के लिये कह रही हो। ताकि वो उस बंधन से स्वतंत्र हो पूरी तरह उन्मुक्त हो सके।

बंधन भला किसे पसंद होता है? चाहे वो समुद्र हो, उसके अंदर निवास करने वाले विभिन्न जलचर हो या भूमि के रहवासी थलचर हो या फिर मुझ जैसे.. आकाश में तैरने वाले नभचर...! लेकिन उसे था..! जी हाँ..! उसे बंधन प्रिय था..! वैसे मेरे परिप्रेक्ष्य से देखा जाए तो उसे बंधन नहीं अपितु  उस बंधन में मिले ऐशो-आराम से प्रेम था; इतना कि यदि आप उसे मुक्त भी करवा लें, तो भी वह अपने बंधन को नहीं छोड़ती। कौन थी वह? आगे की कहानी में आप स्वयं ही जान जाएँगे...।

यह बात उस समय की है जब मैं इस क्षेत्र के पक्षियों का सम्राट चुना गया था। हालाँकि मेरा शासनकाल प्रारम्भ हुए बहुत अधिक समय नहीं हुआ था, किन्तु राज्य का सञ्चालन पुनः सुचारु रूप से चालू हो गया था और सभी पक्षी मिल-जुल कर शांतिपूर्ण रूप से रहने लगे थे। इसी प्रकार की एक शाम को अपने राज्य की व्यवस्थाओं का अवलोकन कर मैं निश्चिन्त हो बैठा ही था कि मुझे सुचना मिलती है कि कुछ मनुष्य जंगल में जाल बिछाकर कई पक्षियों को कैदी बनाकर ले गए। बस फिर क्या था..! एक सम्राट होने का कर्त्तव्य निभाते हुए मैं उन पक्षियों को ढूंढकर छुड़ाने के लिए निकला। महान बनने की लालसा और यौवन से पूर्ण होने के कारण मैं यह कार्य स्वयं करना चाहता था।

पक्षियों की पूरी जानकारी मिलने पर यह ज्ञात हुआ कि मनुष्यों के एक बड़े शहर के चिड़ियाघर में पक्षियों की संख्या अपेक्षाकृत रूप से कम रह गई थी, जिससे उनके दर्शक कम हो गए थे। अतएव अर्थ की लालसा में तथा दर्शकों की संख्या बढ़ाने के लिये उन्होंने वन में जाल बिछाकर पक्षियों के एक बड़े समुदाय को कैदी बना लिया और उस चिड़ियाघर के पिंजरों में लाकर छोड़ दिया।

बड़ी सूझ-बूझ, साहस, छुपते-छुपाते और अन्य प्राणियों की मदद से मैं उन सभी पक्षियों को उस उम्रकैद से छुड़ाने में सफल रहा, किन्तु.. स्वयं को नहीं। जी हाँ..!मनुष्यों को हमारी गतिविधि की सूचना मिल गई और उन्होंने मुझे कैदी बना लिया, तत्पश्चात एक विशालकाय पिंजड़े में ले जाकर मुझे छोड़ दिया। किन्तु मैंने अभी हार नहीं मानी थी, अतएव मैं अर्द्धरात्रि की प्रतीक्षा करने लगा, द्वार से कुछ ही दूरी पर बैठकर ..।

जब अर्द्धरात्रि में संपूर्ण चिड़ियाघर में निष्क्रियता ने पाँव पसार लिये, तब मैं पुनः स्वयं को उस कैद से मुक्त करने की कोशिश करने लगा।

कुछ ही क्षण बीते होंगे कि पीछे से आवाज़ आई- "ये क्या मूर्खतापूर्ण कार्य करने जा रहे हो? यदि कुछ समय यहाँ व्यतीत कर लोगे तो स्वतः ही बाहर की दुनिया भूल जाओगे। किन्तु यदि फिर भी तुम्हें यह मूर्खता करनी ही है तो कल सुबह करना, अभी मेरी निद्रा में व्यवधान उत्पन्न हो रहा है। शांति से सोने दो मुझे और तुम भी सो जाओ। "

चारों तरफ इतना गहन अन्धकार था कि वो कौन थी, कहाँ से बोल रही थी, कुछ नहीं दिखा। किन्तु उसकी वाणी बड़ी मृदुल थी और मैं तो उसी पर मोहित हो गया था। अतः उसकी बात बिना टाले चुपचाप सो गया।

अगले दिन सुबह भी उसकी आवाज़ ने ही मुझे जगाया, यहाँ तक कि जब नेत्र खोले तो उनके समक्ष वही खड़ी थी। उसके पीछे से आता भोंर के सूर्य का स्वर्णिम प्रकाश उसके सौंदर्य को और भी निखार रहा था एवं एक दिव्यता का अनुभव करवा रहा था। बहुत ही अप्रतिम भोंर थी वह.. जो कि एक दिवास्वप्न की भाँति प्रतीत हो रही थी और मुझे उसके प्रेम में सम्पूरित कर  रही थी। तभी... उसने मुझे एक जोर का थप्पड़ मारा और दिवास्वप्न के आकाश से यथार्थ के धरातल पर ला खड़ा किया। तब मुझे ज्ञात हुआ कि वह काफी समय से इस पिंजरे में रहने के लिये बनाए गए उसके नियम मुझे बता रही थी। जैसे कि किस प्रकार यह पिंजरा कितने क्षेत्रों में बंटा हुआ है और कौन-कौन से क्षेत्र में मेरे लिये जाना वर्जित है। जैसे कि जब भी भोजन परोसा जाएगा तो पहले वह भोजन करेगी एवं शेष में से मुझे ग्रहण करना होगा.. आदि.. आदि..!

उसे यह भ्रान्ति हो गई थी कि मैं वाकई में वहाँ रुकने का निर्णय ले चुका था। वैसे उसके प्रेम के लिये रुक भी जाता किन्तु मैंने पुनः स्वतंत्र होने की ठानी और साथ में उसे भी स्वतंत्र कराने की। हालाँकि ये सबसे दुष्कर कार्य था,स्वयं की स्वतंत्रता से भी कहीं अधिक दुष्कर!।

कड़ी मेहनत कर रहे किसी व्यक्ति की सहायता कर उसे उसके लक्ष्य तक पहुँचाना आसान है, किन्तु यदि वह व्यक्ति आलस्य का शिकार हो, आमोद-प्रमोद में जीवन व्यतीत करने का आदी हो गया हो,तो उसकी सहायता कोई नहीं कर सकता। उस व्यक्ति को कोई फर्क नहीं पड़ता यदि उसके इस आमोद-प्रमोद का मूल्य उसकी स्वतंत्रता ही क्यूँ न हो_।


और कुछ इस प्रकार की ही मानसिकता बन चुकी थी उसकी भी। जब मैंने उससे पूछा- "तुम स्वतंत्र क्यूँ नहीं होना चाहती?" तो उसने उत्तर दिया- "स्वतंत्र ही तो हूँ मैं..! अपने इस पिंजरे के अंदर..! किसी प्रकार की समस्या नहीं..!समय से भोजन मिलता है..! इतना विशाल पिंजरा है कि एक सीमित ऊँचाई तक अबाध्य रूप से उड़ सकती हूँ...!किसी भी प्रकार के प्राणघातक खतरों का भय नहीं..! और समय- समय पर मेरे स्वास्थ्य की भी जाँच-पड़ताल होती रहती है..! और क्या चाहिये जीवन जीने के लिये??
अपने प्रश्न का यह उत्तर सुन हैरान था मैं..!! आप कल्पना भी नहीं कर सकते कि कितनी कोशिशें की होंगी मैंने उसको स्वतंत्र जीवन के स्वर्णिम सूत्र समझाने के लिए..!! प्रारम्भ में तो उसका उत्तर भी यही मिला था- "बाहर तो मुझे एक समय का भोजन भी तृप्ति भर प्राप्त नहीं हो पाता था, कभी-कभी तो सम्पूर्ण दिवस बस आकाश में गोल-गोल चक्कर लगाकर भोजन की तलाश में ही निकल जाता था, किन्तु उसके उपरान्त भी भोजन प्राप्त नहीं होता था।  उसकी अपेक्षा यहाँ मुझे समय पर भोजन तो मिलता है। तो क्यूँ जाऊँ मैं बाहर ?"

उसकी इस विचारधारा को परिवर्तित करने में मुझे १० दिवस का समय लग गया। और जब मैंने उसे बताया कि मैं एक सम्राट हूँ, मेरी प्रजा को मेरी आवश्यकता है, कि मेरा स्वतंत्र होना कितना अधिक आवश्यक है.., तो वह  इस प्रकार अचंभित हो ज़ोर से अट्टहास करने लगी जैसे मैंने कोई हास्यप्रद बात कह दी हो..!किन्तु... जब उसने मेरी स्वतंत्र होने की निष्ठा को देखा, तो स्वतः ही इस कार्य में मेरी सहायता करने लगी।

एक पखवाड़े की उम्रकैद के पश्चात् मुझे स्वतंत्र होने में सफलता प्राप्त हुई और साथ में वह भी..!! हाँ..! इतना समय साथ व्यतीत करने के पश्चात् उसने भी मेरे साथ आने का निर्णय कर लिया था और मेरे लिये उस स्वत्नत्रता की प्रसन्नता में १०० गुना अधिक वृद्धि हो गई थी।

वो मेरे साथ आ तो गई थी, किन्तु उसकी आलस्यपूर्ण, आमोद-प्रमोद वाली जीवन-शैली भी साथ में आई थी। यद्यपि मुझे उससे कोई आपत्ति नहीं हुई, अपितु मेरा जीवन और अधिक रोमांच से भर गया। वह मनुष्यों के मध्य एक लम्बी अवधि तक रहने के कारण उनकी कई प्रकार की आलस्यपूर्ण तकनीकें भी सीख गई थी, जिनसे मुझे ही अपने साम्राज्य को बेहतर बनाने में सहायता मिली।

हाँ..!! जानता था मैं एक ऐसी गरुड़ी को, जिसे बंधन प्रिय था, और अब उसका इकलौता बंधन मैं हूँ और वह मेरे इस साम्राज्य की साम्राज्ञी है, जो कि इस समय मेरे पार्श्व में बैठी इस नयनाभिराम दृश्य को दृष्टित कर आनंदविभोर हो रही है।


"आह..!"
"क्षमा पिताजी..! देखो.. आज मैं कितनी बड़ी मछली पकड़ कर लाया..!!"
"नहीं..! मेरी ज्यादा बड़ी है..!"


ये बच्चे भी न..! इनकी चंचलता स्मृतियों के समुद्र से हमें एक क्षण में ही इस प्रकार बाहर खींच लाती है जैसे ये मीन पकड़कर लाए है..!


विहंग साम्राज्य के सम्राट गरुड़ की ओर से आप सभी को शुभ रात्रि..!