Tuesday 16 May 2017

पेड़ की पाठशाला



मैं हूँ एक पेड़ 
जो पढ़ता हूँ किताबें 
मैं हूँ एक पेड़ 
जो लिखता हूँ किताबें 

बरसों पहले_
जब मेरे नीचे 
लगती थी जो पाठशाला 
जिसमें मास्टरजी बच्चों को 
ज्ञान के पाठ पढ़ाते थे 
तब उन नन्हें बच्चों के संग 
मैं पढ़ना - लिखना सीख़ गया_
मैं तारे गिनना सीख़ गया_

जब शाम को चार बूढ़े मिल 
परिवार की बातें करते थे_
जब शाम को चार बूढ़े मिल
रिश्तों की बातें करते थे_
तब_
अपने दामन में बसे निकुंजों का 
मैं ख़्याल रखना सीख़ गया_

जब काली तन्हा रातों में_
वो तन्हा गवैया गाता था 
जब काली तन्हा रातों को वह 
सुरों के रंगों में संजोता था 
तब उसके गीतों में रंग_
मैं गुनगुनाना सीख़ गया_

जब सुबह - शाम वैद्यराज 
रोगियों का उपचार करते थे 
तब सुबह - शाम वैद्यराज
स्वास्थ्य की शिक्षा देते थे 
तब उनके नुस्खों को सुन_
मैं स्वस्थ रहना सीख़ गया _

जब सुकुमार बालाओं के पद 
संगीत की ताल पर थिरकते थे 
जब बच्चे से लेकर बूढ़े तक 
मग्न हो नर्तन करते थे_
तब उनके नृत्यों में होकर गुम 
मैं झूमकर लहराना सीख़ गया_

जब एक सन्यासी कई दिन 
धूनी रमाए बैठा था_
जब एक सन्यासी कई दिन 
तप में लीन बैठा था_
तब उसके धैर्य और संयम को देख 
मैं भी संयम सीख़ गया 

मैं हूँ एक पेड़ 
जो पढ़ता हूँ किताबें 
और उन किताबों से मैं 
जीवन जीना सीख़ गया 
और अपने जीवन के सभी अनुभवों को 
अपनी किताब में लिख गया 

- iCosmicDust(निकिता पोरवाल )



Friday 12 May 2017