बरस-दर-बरस उम्र कटती गई_
वक्त की रेत हथेलियों से फिसलती गई_ _
ना किसी के हो सके
ना किसी को अपना बना सके
जिन्दगी दूर से ही गुजरती गई_
तन्हाईयों के इस शोर में_
ढूँढते - ढूँढते आवाज किसी अपने की
अपनी ही आवाज कहीं गुम हो गई_
हम इस कदर दूर भाग आए
संघर्ष की आग से_
कि सारे तजुर्बों की सिकाई कच्ची ही रह गई_
बरस-दर-बरस उम्र कटती गई_
वक्त की रेत हथेलियों से फिसलती गई_