Wednesday 5 October 2016
Saturday 24 September 2016
फाँस
आज फिर.. अतीत ने मेरा हाथ पकड़ मुझे पीछे खी़ंच लिया..
तो झटके से दूसरे हाथों में थमा भविष्य का गुलदस्ता_
नीचे गिर चकनाचूर हो गया..!
जब छुड़ाने लगी खु़द को
अतीत की जकड़न से..
तब गुलदस्ते का एक टुकड़ा
पैरों में चुभ गया..
दोनों ही जख्म़ अब दर्द बराबर देते है..
दिखते नहीं है आँखों से
मगर इनकी चुभन से
आँसू भी रो देते है..!
-निकिता
Sunday 11 September 2016
Tuesday 30 August 2016
Monday 29 August 2016
Monday 16 May 2016
Monday 25 April 2016
Tuesday 19 April 2016
Monday 22 February 2016
मेरे जीवन का सारांश
बरस-दर-बरस उम्र कटती गई_
वक्त की रेत हथेलियों से फिसलती गई_ _
ना किसी के हो सके
ना किसी को अपना बना सके
जिन्दगी दूर से ही गुजरती गई_
तन्हाईयों के इस शोर में_
ढूँढते - ढूँढते आवाज किसी अपने की
अपनी ही आवाज कहीं गुम हो गई_
हम इस कदर दूर भाग आए
संघर्ष की आग से_
कि सारे तजुर्बों की सिकाई कच्ची ही रह गई_
बरस-दर-बरस उम्र कटती गई_
वक्त की रेत हथेलियों से फिसलती गई_
Wednesday 17 February 2016
Tuesday 12 January 2016
जड़-जीवन
एक बीज़ ज़मीन पर गिरा। मृदा नम थी, वह उसके अंदर जा धँस गया। गीली मिट्टी के कारण वह पूर्णतः भीग गया, उसके रोम-रोम में अंतर तक जल समां गया। वह प्रसन्नता और आनंद से फूला नहीं समां रहा था। कुछ दिवस पश्चात उसके अंतर से दो नन्हें अंकुर फूटे। वह शायद पहला और अंतिम दिन था, जब उन दोनों ने एक-दूसरे के स्पर्श से परस्पर एक-दूसरे को जाना पहचाना था।
शनैः-शनैः वे दोनों अपने विकास की ओर अग्रसर होने लगे। एक तेज़ी से ऊपर की ओर जाने लगा और भूमि से बाहर निकल विराट गगन को छूने की कोशिश करने लगा, तो दूसरा मृदा में अंदर नीचे की ओर बढ़ने लगा, और अपने साथी की उसके गगनचुम्बी स्वप्न को पूरा करने में मदद करने लगा।
अपने साथी को सहारा देने एवं उसके विकास तथा पोषण के लिए वह ज़मीन के अंदर ही प्रसन्नचित्त होकर अपना विकास करने लगा। उसमें आकाश को छूने की चाहत कभी नहीं थी, उसे मृदा के मध्य रहना ही पसंद था, जिसे वह अपनी माँ स्वरुप देखता था। जिसके कोमल स्पर्श से उसे अभूतपूर्व आनंद की अनुभूति होती थी। शायद इस कारण भी वह सदैव भूमि से जुड़ा रहा।
भूमि के अंदर रहने के कारणवश वह कभी अपनी आँखें नहीं खोल पाया। किन्तु स्पर्श के जिस अहसास से उसने अपने जीवन को ज़िया, वह अद्वितीय है। मिट्टी में उसने अपनी जिन शाखाओं को विकसित किया, वे जब आपस में गुथती, फैलती, परस्पर व उनके आसपास रहने वाले कीड़ों, जीवों आदि के साथ मस्ती करती, तो उसका संपूर्ण अंतर्मन प्रफुल्लित हो उठता। वे कीड़े जब उन्हें गुदगुदी करते, तो जैसे उनके रोम-रोम में तरंगें उठ जाती। जब कभी मृदा में बनी किसी दरार से हल्का सा प्रकाश उन पर आ गिरता तो उनकी आँखें चौंधियां जाती। अंदर शीतल जल में नम रहती किन्तु यदि जब कभी शीतल समीर उनके अंगों को छूकर गुजरती, तो उनका अंग-प्रत्यंग काँप उठता।
उन्हें दुनिया की कोई चिंता ही नहीं थी। जो जीवन उन्हें मिला था, उसका वे बड़े उत्साह एवं आनंद से निर्वहन कर रही थी। केवल इतना नहीं, इसके साथ-साथ उन्होंने एक नन्हे अंकुर को पोषण देकर फूलों-फलों से हरे-भरे सौंदर्यपूर्ण विशाल वृक्ष में रूपांतरित भी कर दिया था। एक सीमित सीमा में रहकर प्रफुल्लित मन से जानें कितनें ही जीवों का जीवन पल्लवित कर जिस जीवन-उत्साह के साथ वे जी रही है उसका इस सम्पूर्ण संसार में कोई सानी नहीं है।
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